पृष्ठ:लालारुख़.djvu/७९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दे खुदा की राह पर मैंने थोड़े चने मुट्ठी में लेकर कहा-"मेरे बुजुर्ग, इन्हें मैं नियामत ससमता हूँ। रजिया पास आ वैठी। हम तीनों ने चने खाए। इसके बाद मैं उठ खड़ा हुआ। बूढ़े ने खड़े होकर मुझे विदा किया। मेरा नाम यूछा और दुआ दी। मैं रोज उसे वहीं भीख माँगते देखता, पर कभी कुछ देने तथा बोलने का साहस न करता। हाँ बीच-बीच में मैं उसके घर, घंटा दो घंटा जाकर बैठ आता था। इसका असली परिचय प्राप्त करने की मैंने बहुत चेष्टा की, पर न प्राप्त कर सका। अल- बत्ता मुझे यह अवश्य मालुम हो गया कि बूढ़ा कोई बहुत ही बड़े खानदान का आदमः है। चार साल गुजर गए। हम लोगों में बहुत घनिष्टना बढ़ गई थी। बूढ़े का यह नियम था कि वह तमाम भीख में से आधी मजार पर खैरात कर देता था। यह मज़ार उसी की धर्म-पत्नी का था, जिसे उसने कभी अपने प्राणों से ज्यादा प्यार किया था, और अब पूजा करता था। आधी भीख वह अपने और रजिया के काम में लाता था। एकाएक मैंने देखा, वह अब सीढ़ियों पर नहीं है। कई दिन बीत गए, आखिर में एक दिन उसके घर गया। देखा बूढ़ा मृत्यु- शय्या पर पड़ा है, रजिया अकेली उसकी सेवा कर रही है। रजिया अब्द सत्तरह साल की अप्रतिम सुन्दरी थी। परन्तु उसके सौन्दर्य में चमेली के समान माधुर्य था। वह पवित्रता, गौरव और गंभीरता के केन्द्र स्वरूप थी। उसके गुणों पर मैं मोहित ७१