पृष्ठ:लालारुख़.djvu/७८

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चतुरसेन की कहानियाँ रजिया चली गई। मैं बृढ़े के दृष्टि हीन तेजवान मुंह को देखता रहा। फिर मैंने कहा "रजिया क्या आपकी बेटी है।" "नहीं, योती है। इसकी माँ इसे जन्मते ही मर गई थी। इसे मैंने इन्हीं हाथों से पाला है।" "रजिया के वालिद शायद नहीं हैं।" "नहीं" बूढ़े का स्वर भर्रा गया। फिर उसने जरा खाँस कर कहा । उसे आज भरे चौदह साल हो गए। बूढ़े की दृष्टि- हीन आँखें मानो कुछ देखने लगीं। उनमें पानी छलछला आया। उसने एक बार आकाश की ओर उन आँखों को उठाया और फिर जमीन पर झुका दिया। मुझे ऐसा मालूम हुआ कि बूढ़े का जीवन गंभीर भेदों से परिपूर्ण है। परन्तु मुझे उससे कुछ पूछने का साहस नहीं हुआ। मैंने फिर कहा-"क्या मैं आपकी कोई खिदमत बजा ला सकता हूँ? "मेरी कोई खिदमत ही नहीं है, मिहरबान । मैं एक अदना खिदमतगार हूँ" उसके होंठ काँपकर रह गए, मानो बलपूर्वक कुछ उसके मुख से निकल रहा था, वह उसे जबरदस्ती रोक लिया। रजिया लौट आई। और उसने भुने चने बूढ़े के सामने, एक साफ कपड़े के टुकड़े पर, फैला दिए । बूढ़े ने पानी मँगाकर वजू किया, नमाज पढ़ी, और फिर मेरे पास आकर कहा-“अगर एक मुट्ठी इसमें से आप कबूल फर्माएँ, तो मैं समझू कि अब भी मैं मिहमाननमाजी करने के लायक हूँ !” उसने चनों का रूमाल खुदा का आगे बढ़ाया। ७०