पृष्ठ:लालारुख़.djvu/८८

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चतुरसेन की कहानियाँ कैसे जानती ? जीवन के सुख और ऐश्वर्य के पीछे एक धर्म-नीति छिपी रहती है, यह मुझे उस घर में बताता कौन ? फिर भी मेरी आत्मा ही ने मुझे बताया, वही आत्मा अन्त तक मेरे कर्मों का नियन्ता रहा। मैं उस घर में सब कुछ देखती थी। मैं कह चुकी हूँ कि मुझ- सी दस-पन्द्रह थीं। पर मैं सबसे छोटी थी, नई आई थी, सबके पृथक्-पृथक् सजे कमरे थे। सबके पास बढ़िया गहने-कपड़े इन और न जाने क्या-क्या था। सबकी खातिर भी खूब होती थी, चोचले भी चलते थे, पर मैं मौसी के पास सोती और रहती थी। सबके उतरे गजरे पहनना और बची हुई मिठाई खाना मेरा काम था। धीरे-धीरे मेरे मन में ईर्ष्या होने लगी। मैंने एक दिन मौसी से कह भी दिया, रूठ भी गई, आखिर मैं क्या आसमान से गिरी हूँ, मुझे भी एक कमरा, पलङ्ग और वैसे ही सब सामान चाहिए, जो औरों के पास हैं। मौसी हँस पड़ी। उसने मुझे गोद में लिया, चूमा और कहा-"धीरज रख बेटी! वह समय भी आ रहा है, जब तू इन सब से चढ़-बढ़ कर रहेगी।" उस समय की मैं बड़ी बेचैनी से बाट जोहने लगी। साथ ही करने लगो अध्ययन उन सबका, जिन पर मेरी ईर्ष्या थी। मेरी ईर्ष्या की प्रधान पात्री थी हीरा ! वही तो सब में एक थी, घर-घर नगर में और दूर-दूर उसकी चर्चा थी, उसका रूप था? दुपहरी थी, उसकी वह दन्त पंक्ति, मोती-सा रङ्ग कटीली ऑखें, मन्द हास्य, हस की-सी गर्दन, साँचे में ढाला बदन, कितने सेठ-साहूकार, राजा-रईस, नवाब-शाहजादों को अधीर बनाए था-वे उसके पास आते, क्या-क्या आदर-भाव करते, ! ,