पृष्ठ:लालारुख़.djvu/८९

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पतिता दासियाँ हुक्म की बन्दो रहती : सुनहरे काम का छपरखट और उसका हरा रंगीन कमरा, क्या मैंने लाखों बार भी हाह की नज़र से न देखा होगा? एक दिन अचानक मौसी ने कहा--"आनन्दी, ले आना कमरा पसन्द कर । कौन-सा लेगी, मैं अब तुमे भी अलग कमरा दूंगी, उसे तेरे मर्जी का सजाऊँगी। कपड़े-लत्ते साही जो तेरी पसन्द का हो तू बाजार में जाकर ले भा। ले यह एक हजार रुपए, सिर्फ कपड़े और शृङ्गार-पटार के लिए हैं। जेबर मैं तुझे अलग दूंगी।" इतना कह कर उसने नोंटो का एक बण्डल मेरी गोद में डाल दिया और कहा-“शाम को हीरा के साथ जाकर जरूरी सामान खरीद ला । ले, मैं अपना कमरा तेरे लिए खाली किये देती हूँ, मैं बुढ़िया बावली किसी कोठरी में पड़ रहूँगी !" मैंने आकाश छुआ! कब शाम हो और मैं बाजार चलूँ। निदान एक ही सप्ताह में मेरा कमरा घर-भर में इन्द्रभवन था। मैं रात-दिन उसकी सजावट में लगी रही, खाना-पीना भी छोड़ दिया, साथ वालियाँ दिल्लगी करती थी, पर मैं समझती न थी। कभी-कभी उनकी बातों से भय-सा लगता था, उनका क्रूर-हास्य शङ्का उत्पन्न करता था-मानों इस साज-शृङ्गार में एक रहस्य है, पर मैं उमङ्ग में थी। देखते-देखते मेरा रङ्ग बदल गया । जितने छैले घर में आते थे, मुझ पर टूटे, पर मौसी का बड़ा भय था। क्या मजाल जो जरा कोई बढ़ कर बातें करता ! साथ बालियों पर मुझे डाह , थी, पर अब वे मुझ पर जलती थीं, भेद' तो अभी खुला न था, पर मुझे इसमें मजा आता था जरूर ! उस दिन से छठे दिन की बात है। मैं सो रही थी, ६