पृष्ठ:लालारुख़.djvu/९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पविता , मनुष्यों ने मेरे शरीर को देखा, बलात्कार किया और होनी- अनहोनी सब हुई ! इनमें राजा-महाराजाओं से लेकर, घृणास्पद कलङ्की और रोगो भी थे-सभी ने एक ठीकरे में खाया। लोग कहते हैं कि मैंने रूप पाया और यह भी कहते हैं कि उसे खूब बेचा। पर मुझे सब कुछ बेच-खरीद कर मिला क्या? इस अभागिनी के मन की बात कौन सुनेगा? कौन इस पर आंसू बहाएगा, जगन् में मेरा सगा है कौन? फूल के कीड़ों का नाम बहुतों ने सुना होगा, पर उस जह- रीले कीड़े ने खाया मुझे ! हाय, दुनिया कैसी प्यारी थी, कैता साज-शृङ्गार, वस्त्र, सुगन्ध, मौज-बहार, हास्य उन सबको अब याद करती हूँ-वे सब कहाँ चली गई, स्वन की माया की तरह !! खो क्या वस्तु, यह मुझे श्राज मालूम हुआ, जब मैंने खोत्व खो दिया ! धर्म मेरा सानी है। मैंने रूम को बेचा नहीं, मैंने उसका मोल न कभी जाना, न किया, अभागिनी सीधी-सादी बालिका अपने रूप को कितना देखतो-देखने वाले देखते हैं यही कैसे समझती, यही तो मरने की बात हो गई। मैं जब तक बच्ची रही । तब तक की तो बात हा जाने दीजिए पर दिल्ली आने पर? न माँ थी, न बाप था, भाई था-वह भी चला गया। पर जो थी, वह माँ से भी ज्यादा सगी, स्वयं हाथों से नहलाती, उबटन लगाती, सुगन्ध लगाती, गजरों से सजाती और मोटर में बैठा कर सैर कराती! तब कौन मेरे बराबर सुखी था-मुझे कुछ काम न था। उस्ताद जी आते, उनकी सफेद दाढ़ी, भही सी मोटी ऐनक और मीठी-मीठी बोली, कैसी प्यारी थी। वे गाना सिखाते, मैं विनोद से उनके गले की नकल करती। वह इतनी ठीक उतरती कि रास्ते चलते खड़े हो जाते ,