पृष्ठ:लालारुख़.djvu/९४

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चतुरसेन की कहानियाँ मैं इतराती थी, उत्तम से उत्तम भोजन-वस्त्र बिना माँगे हाजिर थे। मैं बड़ी हुई, तीसरे पहर से ही उबटन-शृङ्गार, केश विन्यास और नई साड़ियों की पसन्द और पहनने का जो उपक्रम चलता तो दिए जल जाते। इन से अभकते हुए उस कमरे में नर्म कालीन पर मैं इटला कर बैठती। बड़े-बड़े सेठों के जवान आते, मेरी स्वर-लहरी पर लोट जाते, रुपयों की बौछार करते। जब आधी रात बीतने पर झोली भर रुपए ले मैं नई माँ को देती तो वह छाती से लगा लेती। बारम्बार बेटी कहती, मैं जरा भी थकान न मानती, पड़ कर जो सोती तो प्रभात था। हाय ! मैं समझती थी—यह सब मेरा आदर है, यह गायन- कला मेरा गुण है, उस पर सैकड़ों गुणज्ञ रीझ रहे हैं। पर यह भेद तो पीछे खुला, वह मेरा नहीं, मेरे शरीर का, रूप का आदर था। बह गायन तो एक बहाना, एक छल था, एक तीर था, जिससे शिकार मारे जाते थे। मेरी अज्ञानावस्था में कितने शिकार मारे गए, यह मैं अब क्या बताऊँ। उस दिन कोई त्योहार था, शायद तीज थी, मैं नहा कर बैठी थी। मेरी एक सहेली ने मुझे बुला भेजा था। मैं जाने की तैयारी में थी कि माँ ने बुलाया, कहा-बेटी, वह जो नई बनारसी साड़ी आई है, पहन लो। आज तेरी तकदीर का सितारा बुलन्द हुआ, महाराज xxx ने तुझे नौकर रख लिया है। तुझे वहाँ जाना है, अभी मोटर आ रही है। मैंने चाहा था कि तुझे रानी बना दूंगी, वह इच्छा पूरी हुई, अब देर न कर। मैं खाक-पत्थर कुछ भी न समझी। रानी बनने की बार को कुछ समझी, रानी धनने में मुझे क्या उन था, पर नौकरी