पृष्ठ:लालारुख़.djvu/९७

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पतिता घण्टी बजा दी। नौकर दस्तबस्ता आ हाजिर हुआ। उसे कुछ इशारा करके, उन्होंने मौसी का हाथ पकड़कर कहा-"जब तक यह कुछ खाए-पिए, हम लोग काम की बातें कर लें। वे दोनों दूसरे कमरे में चले गए, और नौकरों ने फल्ल, बिस्कुट मेवा मेरे सामने ला रक्खा। पर मैंने छुआ भी नहीं। मैं भयभीत हो गई थी, मैं समझ गई कि यहाँ फँसी। हाय ! हृदय के एक कोने में नवाङ्कुरित प्रेम विकल हो उठा ! पर करती क्या? मैंने निश्चय किया-मैं अवश्य मौसी के साथ जाऊँगी ? हठात् महाराज ने कमरे में प्रवेश करके कहा-अरे ! तुमने तो कुछ खाया ही नहीं। "जी, मेरी तबियत नहीं है, क्या मौसी अन्दर हैं ?" "वे गई। "और मैं १५ "तुम्हें यहीं आराम करना है।" वे मुस्कुरा कर बोले- "क्या तुम्हें डर लगता है ?" "जी नहीं !" "यह जगह पसन्द नहीं?" "जगह के क्या कहने हैं " "मैं पसन्द नहीं ?" "सरकार क्या फर्माते हैं। मैं शर्मा गई। एक आदमी शराब, प्यालियाँ, कुछ और खाने की चीजें चुन गया। महाराज ने प्याला भर कर कहा-"मिस हीरा, परहेज तो नहीं करती १ करोगी तो भी पीना तो पड़ेगा?" "हुजूर, मैं नहीं पीती “मगर मेरा हुक्म है " -