पृष्ठ:लालारुख़.djvu/९८

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चतुरसेन की कहानियाँ "मैं मुखाकी चाहती हूँ" "क्या हुक्म उदूली करती हो ?" "मेरी इतनी मजाल" "बेवक़ा औरत पी-क्षण भर में उनकी आँखें लाल हो गई और त्योरियाँ चढ़ गई। "मैं न पी सकूँगी खूटी से चाबुक उठा कर उस निर्दयी ने खाल उड़ाना शुरू कर दिया। मेरे चिल्लाने से कमरा गूंज उठा। तड़प कर धरती में लोटने लगी। पर वहाँ बचाने वाला कौन था ? वे चाबुक फेंक कर बैठ गए । मैं ज्योंही उठी, उन्होंने प्याला भर कर कहा-पियो! "मैं गटगट पी गई।" मेरे हाथ से प्याला लेकर उन्होंने मेरे पास आकर कहा- "हीरा, मेरी दोस्त ! आइन्दा कमी हुक्मउदूली की हिम्मत न करना। अरे, क्या तुम्हारी साड़ी भी खराब हो गई ।" इतना कह उन्होंने घण्टी बजाई, एक लड़का आ हाजिर हुश्रा। उसे हुक्म दिया-"जाओ ड्योढ़ियों से एक उम्दा साड़ी ले आओ।" साड़ी आई। उसकी कीमत दो हजार से कम न होगी। वैसी साड़ी मैंने कभी न देखी थी। मैं अवाक रह गई। ऐसा बेढब आदमी तो देखा न सुना। मैं साड़ी बदल कर चुपचाप उसके. हुक्म की इन्तजारी करने लगी। मेरा गरूर और सारी चञ्चलता न जाने कहाँ चली गई। उन्होंने निकट आकर प्यार के स्वर में कहा-जाओ उस कमरे में सो रहो, मैं भी जरा सोऊँगा। किसी चीज़ की जरू- रत हो तो घण्टी देना, नौकर हुक्म बजा लावेगा।