सुखों और सारे सुधारोंकी जड़ है। पर राजाका न सही भगवान्का उसी ओर दुर्लक्ष्य है। हाय रे दुर्दैव!
भारतमें अर्थकरी शिक्षाकी ओर बहुत ही कम ध्यान दिया जाता है। यहाँकी शिक्षाकी बदौलत क्लर्क, मुहर्रिर, लेखक, स्कूल-मास्टर ही अधिकतर पैदा होते हैं और सारी उम्र कलम घिसते-घिसते बिता देते हैं। उच्च शिक्षा पाये हुए युवक, बहुत हुआ तो, वकील बनकर अदालतोंकी शोभा बढ़ाते और दीन-दुखियोंका धन स्वाहा कराने में सहायक होते हैं। फिर भी सबको काम नहीं मिलता। ३० रुपयेकी जगह खाली होनेका यदि कोई विज्ञापन निकलता है तो हजारों युवक टिड्डी-दलकी तरह, विज्ञापन दाताके ऊपर टूट पड़ते हैं। जापानमें यह दुर्गति नहीं। वहाँ अर्थकरी शिक्षा देनेकी और विशेष ध्यान दिया जाता है। जापानके प्रारम्भिक मदरसोंमें जितने विद्यार्थी शिक्षा पाते हैं उनसे कुछ ही कम अर्थकरी शिक्षा देनेवाले शिक्षालयोंमें पाते हैं। ये शिक्षालय अनेक प्रकारके हैं। उनमें भिन्न-भिन्न प्रकारकी ऐसी शिक्षा दी जाती है जिसकी कृपासे लड़के और लड़कियां स्कूल छोड़ते ही चार पैसे पैदा करने लगती हैं। ध्यान इस बातका रक्खा जाता है कि स्कूलसे निकलनेपर कोई लड़का या लड़की बेकार न रहे, वह कुछ-न-कुछ काम कर सके, वह किसीपर भारभूत होकर देशकी दरिद्रता न बढ़ावे। जिन स्कूलोंमें इस तरहकी अर्थकरी शिक्षा दी जाती है उनमें साथ ही, साधारण शिक्षा—अर्थात् लिखने, पढ़ने, हिसाब, भूगोल, इतिहास आदिकी भी शिक्षा-दी जाती है। जापानमें इस तरहके स्कूलोंका बहुत आधिक्य है। वहाँके निवासी इन स्कूलोंसे