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लीग आफ़ नेशन्सका खर्च और भारत

ऐसे आदेश मिले हैं कि अमुक-अमुक देशपर तुम तबतक प्रभुत्व जमाये रहो जबतक वे देश अपना राज्य आप करनेके योग्य न हो जाय। ऐसे प्राप्ताधिकार देश (fandatory Powers) कहाते हैं। अपने अधिकारमें लाये गये देशों या जातियोंपर ये लोग कभी-कभी बड़ी-बड़ी सख्तियां करते हैं। उस दिन इन लोगोंने अपने-अपने अधीन देशोंके सम्बन्ध में अपनी-अपनी रिपोर्ट सभामें पेश की। उनपर सभाने कुछ योंहींसा एतराज़ किया और कुछ प्रश्न भी पूछे। इसपर इन अधिकारी देशोंने बड़ी नागज़गी ज़ाहिर की। बात यह कि हम जैसा चाहेंगे शासन करेंगे। पूछनेवाले तुम कौन?

ऐसी ही इस सभामें भारतको भी अपने प्रतिनिधि भेजनेका अधिकार प्राप्त है। पर इन प्रतिनिधियोंको भारतवासी नहीं चुनते। चुनती है ब्रिटिश गवर्नमेंट। इस दिल्लगीपर अनेक समझदार भारतवासियोंने अपनी प्रतिकूलता प्रकट की है। उनका कहना है कि इस सभाके खर्चका एक अंश जब भारत देता है तब अपना प्रतिनिधि वह आपही क्यों न चुने। सरकारका और भारतवासियों का हित एक नहीं। इस दशा में खर्च तो भारतसे लेना और प्रतिनिधि अपने मनका चुनना, प्रतिनिधित्वकी अवहेलनाके सिवा और कुछ नहीं। इस दफे इस सभाके अधिवेशनमें प्रतिनिधित्व करने के लिए गवर्नमेंटने कपूरथलाके महाराजा साहबको भी भेजा था। उन्होंने वहाँ कुछ ऐसी बातें कहीं जिन्हें भारतवासियोंके कितने ही नेताओंने बिलकुल ही पसन्द नहीं की। उधर विलायतमें महाराजा बर्दवानने भी भारतीय प्रतिनिधिकी हैसियतसे कुछ ऐसी बातें कह डालीं, जो उचित नहीं समझी गयीं।