पञ्चायतोंका बल यद्यपि उच्च-जातियोंमें घट गया है, तथापि नीच जातियोंमें इनका अबतक प्रचाराधिक्य है। वे लोग अपने सामाजिक ही नहीं, दीवानी ओर फ़ौजदारीके भी मामले, बहुधा अपनीही पञ्चायतोंके सामने पेश करते हैं।
हमारे वर्तमान शासकोंकी राय है कि प्रतिनिधि-सत्ताक राज्य-प्रणाली पश्चिमी देशोंकी उपज है। भारतके लिए वह अश्रुतपूर्व वस्तु है। उसका बीज यहाँकी अनुर्वर भूमिमें तबतक उगकर बड़ा नहीं हो सकता जबतक कि उनकी दी हुई शिक्षारूपी खादसे वह भूमि खूब उर्वरा न बना दी जाय। इसीसे वे लोग कुछ समयसे हमें इस राज्यप्रणालीका सबक सिखा रहे हैं। मालूम नहीं, कितनी शताब्दियों या कितने कल्पोंमें भारतवासी इसे सीखकर पञ्चायती राज्य कायम करने योग्य हो जायँगे।
शासकोंकी ये बातें कुछ भारतवर्षी विद्या-विशारदोंको बेतरह खटकी हैं और अबतक खटक रही हैं। वे इन्हें कपोल-कल्पना-मात्र समझते हैं; क्योंकि इनकी दृष्टिमें जातीय पञ्चायतोंकी तो बात ही नहीं, यहां तो किसी समय बड़े-बड़े प्रजातन्त्र राज्यतक कायम थे। इस बातके अनेक प्रमाण, प्राचीन पुस्तकोंमें, पाये जाते हैं। हाँ, उनका नाम प्रजातन्त्रके बदले गणतन्त्र था। पर नामभेद होनेहीसे उनका अभाव नहीं माना जा सकता। इन गणतन्त्र राज्यों के वर्णनोंसे बौद्ध-धर्मर्मके अनुयायी लेखकोंके लिखे कितने ही ग्रन्थ अबतक मौजूद हैं। उनको भी आप जाने दीजिये। आप रामायण और महाभारतहीको लीजिये। उनमें भी आपको ऐसे कितनेही