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पृष्ठ:लेखाञ्जलि.djvu/१७७

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किसानोंका सङ्घटन

सारी करामात सङ्गठनकी है। वहाँके किसान और सैनिक आपसमें गँठ गये। उन्होंने कहा, जो जुल्म हमपर हो रहे हैं उनका एकमात्र कारण यहाँकी बिगड़ी हुई शासन-व्यवस्था है। उसे तोड़ देना चाहिये। यह निश्चय करके उन्होंने अपना ऐसा संगठन किया जिसकी बदौलत उनका साध्य सिद्ध हो गया।

सङ्गठनकी महिमा जानकर भी हमलोग, भारतवासी, दुर्भाग्य तथा अन्य कई कारणोंसे भी, फूटका शिकार हो रहे हैं। हिन्दू मुसलमानोंसे फूटकर अलग रहना चाहते हैं, मुसलमान हिन्दुओंसे। यहीं तक नौबत रहती तो बात बहुत न बिगड़ती। यहाँ तो एकधर्म्मावलम्बी भी आपसमें लड़ते-झगड़ते और एक-दूसरेका सिर फोड़ते हैं। शिया-सुन्नीकी नहीं पटती, ब्राह्मण-अब्राह्मणकी नहीं पटती, शाक्त-शैवकी नहीं पटती। इस पारस्परिक संघर्षण और फूटसे अपनीही नहीं, सारे देश और सारे समाजकी हानि हो रही है। उधर हमारी इस मूर्खता और दुर्बलताकी बदौलत चैनकी वंशी और ही लोग बजा रहे हैं। इसका कारण हमारी अविद्या, हमारा अज्ञान, हमारी अदूरदर्शिता और हमारा अविवेक है। एककी नहीं, इन चारोंकी चौकड़ीसे हमारा पिण्ड तभी छूटेगा जब हमारे कृतविद्य, सज्ञान, दूरदर्शी और विवेकशील देशवासी हमें, अपने उदाहरणसे, एकता और सङ्गठनका महत्व सिखानेकी उदारता दिखावेंगे।

विवेक, दूरदर्शिता, हिताहित-विचारकी शक्ति शिक्षितोंहीमें अधिक होनी चाहिये और शिक्षित मनुष्य ही सङ्गठनकी महिमा अधिक समझ सकते हैं। परन्तु दैवदुर्विपाकसे यहाँके अनेक सुशिक्षित भी स्वार्थ