पृष्ठ:लेखाञ्जलि.djvu/१८०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१७२
लेखाञ्जलि

हैं। किसानोंको भी, निर्दिष्ट नियमोंके अनुसार, मेम्बर चुननेका अधिकार है। परन्तु सबसे अधिक दुःख, खेद, सन्ताप और परितापकी बात यह है कि जो लोग किसानोंके प्रतिनिधि होकर कौंसिलके मेम्बर हुए हैं उनमेंसे अधिकांश मेम्बरोंने अबतक अपने कर्तव्यका पूर्ण पालन नहीं किया। ये लोग बहुधा अपने एजंटोंके द्वारा किसानोंको फुसलाकर और उन्हें सब्ज बाग़ दिखलाकर उनसे अपने लिए वोट ले लेते हैं, पर काम निकल जानेपर किसी किसानकी भेजी हुई चिट्ठीका जवाब तक नहीं देते, उसकी शिकायत नहीं सुनते और उसके हिताहितका विचार ताक़पर रखकर अपने अन्य कामोंके नशेमें मस्त रहते हैं। इस तरह वे अपनी प्रतिज्ञाका पालन न करके, पाप-संचय करते हैं, और प्रकारान्तरसे देश या प्रान्तके ३/४ अंशको दुःख-दारिद्रके गढ़ में पड़ा रखकर उन्हें उससे निकालनेका प्रयत्न न करके—प्रायः सारेदेशको हानि पहुँचाते हैं। इनको चाहिये कि जिनके ये प्रतिनिधि हैं उनके गांवोंमें दौरा करके अपनी आँखोंसे उनकी दशा या दुर्दशाको देखें और उनके हितके काम करके उनकी दशाको सुधारें। न सुधार सकें तो सुधारनेका उद्योग तो करें। पर इन भले-मानुसोंको अपनी वकालत, बारिस्टरी, मास्टरी आदिसे फुरसत कहाँ? जिस समय कौंसिलमें किसानोंके सम्बन्धकी किसी बातपर बहस होती है उस समय उनके कोई-कोई प्रतिनिधि तो हाज़िर तक नहीं रहते! कर्तव्यकी इस अवहेलनाके लिए भगवान् इन्हें क्षमा करे।

पिछले कौंसिलकी जिन बैठकोंमें अवधका नया क़ानून लगान