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दण्ड-देवका आत्म-निवेदन

अखण्ड राज्य था और अब भी है। यही एक देश ऐसा है जिसने हमारे महत्त्वको पूर्णतया पहचान पाया है। बच्चोंकी शिक्षासे तो हमारा बहुत ही घनिष्ठ सम्बन्ध था। वहाँके लोगोंका विश्वास था कि हमारा आगमन स्वर्गसे हुआ है और हम ईश्वरके आशीर्वादरूप हैं। हम नहीं, तो समझना चाहिये कि परमेश्वर ही रूठा है। मिस्रवाले तो इस प्रवादपर आँख-कान बन्द करके विश्वास करते थे। वहाँके दीनवत्सल महीपाल प्रजावर्गको इस आशीर्वादका स्वाद बहुधा चखाया करते थे। इस राज्यमें बिना हमारी सहायताके राज-कर वसूल होना प्रायः असम्भव था। मिस्रके निवासी राजाका प्राप्य अंश, कर, अदा करना न चाहते थे। इस कारण हमें उनपर सदाही कृपा करनी पड़ती थी। उनकी पीठपर हमारे जितने ही अधिक चिह्न बन जाते थे वे अपनेको उतने ही अधिक कृतज्ञ या कृतार्थ समझते थे।

अफ़रीकाकी असभ्य जातियोंमें स्त्रियोंके ऊपर हमारा बड़ा प्रकोप रहता था। ज्योंही स्वामी अपनी स्त्रीके सतीत्व-रत्नको जाते देखता था त्योंही वह हमारी पूर्ण तृप्ति करके उस कुलकलङ्किनीको घरसे निकाल बाहर करता था। कभी-कभी स्त्रियाँ भी हमारी सहायतासे अपने-अपने स्वामियोंकी यथेष्ट ख़बर लेती थीं। अगर पश्चिमी प्रान्तोंमें यद्यपि बालक-बालिकाओंपर हमारा विशेष प्रभाव न था तथापि उन्हें हमसे भी अधिक प्रभावशाली व्यक्तियों का सामना करना पड़ता था। नटखट और दुष्ट लड़कों और लड़कियोंकी आँखों में लाल मिर्च मल दी जाती थी। वे बेचारे इस योजनाका कष्ट सहन करनेमें असमर्थ होकर घंटों छटपटाते और चिल्लाते थे।