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पृष्ठ:लेखाञ्जलि.djvu/२०३

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दण्ड-देवका आत्म-निवेदन

कुली, समयके पहले ही, स्वर्ग सिधार जाते हैं। फीज़ी, जमाइका, गायना, मारिशश आदि टापुओंमें भी हम खूब फूल-फल रहे हैं। जीते रहें गन्ने की खेती करनेवाले गौरकाय विदेशी। वे हमारा अत्यधिक आदर करते हैं; कभी अपने हाथसे हमें अलग नहीं करते। उनकी बदौलत ही हम भारतीय कुलियोंकी पीठ, पेट, हाथ आदि अङ्गप्रत्यङ्ग छू-छकर कृतार्थ हुआ करते हैं—अथवा कहना चाहिये कि हम नहीं, हमारे स्पर्शसे वही अपनेको कृतकृत्य मानते हैं। अण्डमन टापूके क़ैदियोंपर भी हम बहुधा ज़ोर-आज़माई करते हैं। इधर भारतके जेलोंमें भी, कुछ समयसे, हमारी विशेष पूछ-पाछ होने लगी है। यहाँतक कि एम॰ ए॰ और बी॰ ए॰ पास क़ैदी भी हमारे संस्पर्शसे अपना परित्राण नहीं कर सकते। कितने ही असहयोगी क़ैदियोंकी अक्ल हमींने ठिकाने लगायी है।

हम और सब कहींकी बातें तो बता गये, पर इँगलेंडके समाचार हमने एक भी नहीं सुनाये। भूल हो गयी। क्षमा कीजिये। ख़ैर तब न सही अब सही। सूदमें अब हम भारतवर्षका भी कुछ हाल सुना देंगे। सुनिये—

लक्ष्मी और सरस्वतीकी विशेष कृपा होनेसे इँगलैंड अब उन्नत और सभ्य हो गया है। ये दोनों ठहरी स्त्रियाँ। और स्त्रियाँ बलवानोंहीको अधिक चाहती हैं, निर्बलोंको नहीं। सो बलवान् होना बहुत बड़ी बात है। सभ्यता और उन्नतिका विशेष आधार पशुबल ही है। हमारी इस उक्तिको सच समझिये और गाँठमें मज़बूत बाँधिये। सो सभ्य और समुन्नत होनेके कारण इँगलेंडमें अब हमारा आदर कम