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लेखाञ्जलि

होता जाता है। तिसपर भी कशादण्डका प्रचार वहाँ अब भी खूब है। कोड़े वहाँ अब भी खूब बरसते हैं। वहाँके विद्यालयोंमें हमारी इस मूर्त्तिकी पूजा बड़े भक्ति-भावसे होती है। हमारा प्रभाव घोड़ेकी पीठपर जितना देखा जाता है उतना अन्यत्र नहीं। इसके सिवा सेनामें भी हमारा सम्मान अभीतक थोड़ा-बहुत बना हुआ है।

भारतवर्षमें तो हमारा एकाधिपत्यहीसा है। भारत अपाहिज है। इसीलिए भारतवासी हमारी मूर्त्तिको बड़े आदरसे अपनी छातीसे लगाये रहते हैं। वे डरते हैं कि ऐसा न हो जो कहीं धन-मानकी रक्षाका एक-मात्र बचा-खुचा यह साधन भी छिन जाय। इसीसे हमपर उन लोगोंका असीम प्रेम है। भारतवासी असभ्य और अनुन्नत होनेपर भी विलासप्रिय कम हैं। इसीलिए वे ऋषियों और मुनियों द्वारा पूजित हम दण्डदेवके आश्रयमें रहना ही श्रेयस्कर समझते हैं। शिक्षकोंका बेत या क़मची, सवारोंका हण्टर, कोचमैनोंका चाबुक, गाड़ीवानोंकी औगी या छड़ी, शुहदोंके लट्ठ, शौकीन बाबुओंकी पहाड़ी लकड़ी, पुलिसमैनोंके डण्डे, बूढ़े बाबाकी कुबड़ी, भँगेड़ियोंके भवानीदीन और लठैतोंको लाठियाँ आदि सब क्या हैं? ये सब हमारे ही तो रूप हैं। ये सभी शासन-कार्यमें सहायक होते हैं। भारतमें ऐसे हज़ारों आदमी हैं जिनकी जीविकाके आधार एक-मात्र हम हैं। थाना नामके देवस्थानोंमें हमारी ही पूजा होती है। हमारी कृपा और सहायताके बिना हमारे पुजारी (पुलिसमैन) एक दिन भी अपना कर्तव्यपालन नहीं कर सकते। भारतमें तो एक भी पहले दरजेका मैजिस्ट्रेट ऐसा न होगा जिसकी अदालतके अहातेमें हमारे उपयोगकी