पदार्थो के जाने और हज़म होनेसे शरीरकी पुष्टि और वृद्धि होना अवश्यम्भावी है। पर इस पुष्टि और वृद्धिकी भी सीमा होती है। इसलिए आमिवाका शरीर उस सीमाका उल्लङ्घन नहीं कर सकता। कुछ दिनोंतक बढ़नेके बाद उसकी देहमें एक अद्भुत व्यापार सङ्घटित होता है। उसके कारण ही उसकी शरीर-वृद्धि वहीं रुक जाती है। शरीरके उपचयकी सीमाका अन्त हो जाने पर आमिवा मन्थरगति हो जाता है। उस समय उसके देह-कोशके मध्यभागमें स्थित अन्तःकोश के दो टुकड़े हो जाते हैं। वह दो भागोंमें विभक्त हो जाता है। वे दोनों भाग देहकोशके दोनों ओर अलग-अलग अवस्थित हो जाते हैं। इस परिवर्तनके साथ ही साथ देहकोशका मध्यभाग सङ्कुचित होने लगता है। यह सङ्कोचन क्रम-क्रम से बढ़त जाता है। फल यह होता है कि कुछ समय के उपरान्त यह बिलकुल ही लुप्त हो जाता है और एकके बदले दो देहकोश अस्तित्वमें आ जाते हैं। अर्थात् एकके दो आमिवा हो जाते हैं।
पूर्व-निर्दिष्ट दोनों आमिवा अपने मूलभूत पहले आमिवाके अर्द्धांश होते हैं। अर्थात् उनमें से प्रत्येक आमिवा मूल आमिवाके आधे-आधे अंशके बराबर होता है। ये दोनों आमिवा पहले आमिवा ही के सदृश चलते-फिरते और खाते-पीते हैं। यथासमय बड़े होकर वे भी नई सृष्टि उत्पन्न करते हैं। अर्थात् दोके चार हो जाते हैं। यह क्रम बराबर जारी रहता है और यदि कोई दुर्घटना न हुई, तो
चारके आठ, आठके सोलह, और सोलहके बत्तीस हो जाते हैं। उनका वंश-विस्तार इस तरह आगे भी होता ही जाता है। इन