पृष्ठ:लेखाञ्जलि.djvu/२८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२०
लेखाञ्जलि


सकता, तो वह वहां चिपका नहीं रहता; तत्काल ही बाहर फेंक दिया जाता है। मतलब यह कि जितनी खुराक वह हजम कर सकता है, उतनी ही ग्रहण करता है; अवशिष्ट अंश को वह निकाल बाहर करता है। आमिवा के न पेट है, न मुंह। अर्थात् वह आहार्य पदार्थ ग्रहण करने के लिए कोई अङ्ग या अवयव नहीं रखता, तथापि उसकी देहके जिस अंशसे आहार्य पदार्थ छू जाता है वही उसका मुँह हो जाता है और उसीके द्वारा वह उसे अपने पेट या आमाशय में पहुँचा देता है। इस प्रकार आमिवा मुख-विवरहीन होनेपर भी भोजन करता है और उदरदरी-हीन होनेपर भी खाद्यवस्तुको हज़म कर लेता है।

आमिवा विवेक-शक्ति भी रखता है और उसकी वह शक्ति बहुत तीव्र भी होती है। वह खाद्या- खाद्य वस्तुओंको खूब पहचानता है। चलते फिरते समय दैवात् यदि उसकी देहसे बालूका कण, लकड़ी या तृणका कोई टुकड़ा,या और ही कोई अखाद्य वस्तु छू जाय, तो वह तुरन्त पीछे हट आता है; उसे ग्रहण नहीं करता। उस नि:सार पदार्थको एक तरफ छोड़कर वह दूसरी तरफ से आगे बढ़ता है। आमिवाके शरीरसे यदि किसी उत्तेजक या अवसादक पदार्थका संसर्ग किया जाय, तो वह सहम उठता है। वह जान जाता है कि यह पदार्थ मेरे लिए घातक है। अतएव या तो वह उससे मागता है या वहीं निर्जीव सा होकर चुपचाप रह जाता है।

सुभीते के साथ भोजन मिलने और बहुत खा जानेसे आमिवाकी देह शीघ्र ही मोटी-ताजी हो जाती है। पेटके भीतर यथेष्ट भोज्य-