आदि ज्योतिषियोंने अपनी इच्छाके अनुसार घटी बनानेकी सलाह दी है। ब्रह्मगुप्तने,जो ईसाकी सातवीं शताब्दीमें वर्तमान थे, एक अन्य प्रकारके घटी-यंत्रका उल्लेख किया है। वे कहते हैं कि एक नलक (शीशेका पात्र) बनाना चाहिये। उसके नीचे एक छेद करके उसे पानीसे भर देना
चाहिए। बहता हुआ पानी जितना-जितना कम होकर एक-एक घड़ीमें नलके जिस-जिस स्थानपर पहुँचता जाय उसी-उसी स्थानपर अङ्क लगा देने चाहिये। इससे सहज हीमें काल ज्ञान हो सकता है। परन्तु नाड़िका-यन्त्रमें यह असुविधा नहीं है। मालूम होता है कि इस नाड़िकायन्त्रके नामहीसे घटी या घड़ीका नाम नाड़ी या नाडिका पड़ा है।
केवल इसी देशमें नहीं, किन्तु प्राचीन मिस्र, बेबीलोनिया, यूनान और योरपके अन्यान्य देशोंमें मी जल-स्राव देखकर समय जाननेकी रीति प्रचलित थी। प्राचीन कालहीमें क्यों, ईसाकी सोलहवीं शताब्दीमें डेनमार्क देशके प्रसिद्ध ज्योतिर्विद तापकोब्राहिकी वेधशालामें जल-घड़ीके द्वारा कालका परिमाण,जाना जाता था। चीन और भारतवर्षमें अब भी इसका रिवाज है। पर, हम लोगोंकी ताम्री (घटी) और योरपकी जल-घड़ीमें एक भेद है। वह यह कि इस देशकी ताम्रीमें जलप्रवेश देखकर और योरपमें उससे जलनिस्सरण देखकर काल-ज्ञान होता था। छेदके द्वारा किसी बर्तनसे परिमित जल निकलनेमें सदा एक-सा समय नहीं लगता; क्योंकि बर्तनमें पानी जितना ही कम होता जायगा पानीके बहनेका वेग भी उतना ही कम होता जायगा। इसलिए जलपात्रको सदा जलपूर्ण रखना पड़ता था।