इन दोनोंमें और भी भेद है। यूनानी लोग सूर्योदयसे लेकर सूर्यास्ततक दिन मानते थे। उसे वे बारह भागोंमें विभक्त करते थे। वैसे एक भागका नाम घण्टा था। इसलिए गर्मी में उनका घण्टा बड़ा ओर जाड़ोंमें छोटा होता था। ऐसी असमान-समय-ज्ञापक जल-घड़ी बनाना सहज काम न था। हमारे यहाँ यह असुविधा न थी।
पूर्वकालमें नाडिका-यन्त्रसे जल-स्रावके द्वारा नाना प्रकारके यन्त्र चल सकते थे। लल्ल, ब्रह्मगुप्त, भास्कर आदि प्रसिद्ध प्राचीन ज्योतिषियोंने ऐसे कितने ही यन्त्रोंका वर्णन किया है। महामहोपाध्याय सामन्त चन्द्रशेखरसिंहने भी एक ऐसे ही यन्त्रकी रचना की है। जो यंत्र आप-ही-आप घूमे, अथवा जिसे कोई मनुष्य न चलावे, उसे प्राचीन कालके लोग स्वयंवह-यन्त्र कहते थे। सामन्त महाशयने अपना स्वयंवह-यंत्र अपनी बुद्धिके बलपर बनाया है; किसी ग्रन्थके सहारे नहीं। उनके यन्त्रका एक चक्र दो आधारों पर स्थिर रहता है। चक्रके घेरेमें एक डोरा लिपटा रहता है। डोरेका एक सिरा चक्रसे बंधा रहता है और दूसरे सिरेमें पारायुक्त एक गोलक बँधा रहता है। यह गोलक एक बड़े जलकुण्डमें तैरा करता है। कुण्डका पानी जैसे-जैसे बहता जाता है वैसे-ही-वैसे गोलक भी नीचे गिरता जाता है। साथ ही धागा बँधा हुआ चक्र भी धीरे-धीरे घमता जाता है।
किसी चीज़के हिलनेसे सम्वन्ध रखनेवाली अन्य चीजें भी हिलने लगती हैं। हमारे प्राचीन आचार्यों ने नाड़िका-यन्त्र की सहायतासे ग्रहों और नक्षत्रों का चक्र तक घुमा डाला था। आजकल के विद्यालयों में बिलायती 'ओरेरी' यन्त्र जैसा होता है, प्राचीनकालमें गोलकयन्त्र मी