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पृष्ठ:लेखाञ्जलि.djvu/४७

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स्वयंवह-यन्त्र


वैसा ही था। वह जल-स्रावके द्वारा घूमता था। इसलिए उसमें बड़े भारी शिल्पनैपुण्य की आवश्यकता थी। उसके द्वारा लग्नों आदिका भी ज्ञान हो सकता था।

हम यह कह आये हैं कि लल्ल और ब्रह्मगुप्तने बहुतसे काल-ज्ञापक यन्त्रों का उल्लेख किया है। उनमेंसे एक नर-यन्त्र भी है! एक मनुष्यमूर्त्तिके मध्य भागसे लेकर मुंहतक एक सूराख होता है। उसके पेट में डोरीकी एक पिण्डी रक्खी रहती है। डोरीका एक सिरा सूराखसे होते और मुंहमें लगी हुई नलोंको पार करते हुए बाहर आकर लटकता है। उसी सिरेमें पारायुक्त एक गोलक बँधा रहता है। यह गोलक एक कुण्डके पानी पर तैरा करता है। कुण्डसे जल जितना ही बहता जायगा, मनुष्य-मूर्तिके मुंहसे उनती ही डोरी निकलती आवेगी। एक-एक दण्डमें डोरी जितनी-जितनी बाहर निकलती है उतनी-ही-उतनी दूरपर उसमें गाँठे लगी रहती हैं। एक दण्डमें एक गांठ, दोमें दो गाँठे और तीनमें तीन गाँठे बाहर होती हैं। जिस समय जितनी गाँठे बाहर निकलती हैं उस समय उतने ही दण्ड बीत चुके, यह बात लोग देखते ही समझ जाते हैं।

इस प्रकारके किसी यन्त्रमें एक नर-मूर्ति दूसरी नर-मूर्ति के मुंहपर पानी फेंकती है किसी यन्त्रमें वह अपने मुंहसे बधूके मुंहपर गुटिका फेंकता है; किसी यन्त्रमें दो मनुष्य मल्ल-युद्ध करते हैं; किसीमें मोर सांपको निगलता है किसीमें मुगरी घण्टेपर पड़ती है इत्यादि। इन सब कौतुक-जनक यन्त्रोंका उद्देश कालज्ञापनके सिवा और कुछ न था। आज-कल जैसे विलायती घड़ियोंमें नर-नारियों की मूर्तियां