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लेखाञ्जलि


उसमें यह माना गया है कि चक्र आवर्त्ताकार आरों की गोलियों के भार से घूमता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस प्रकार चक्रका घूमना असम्भव है।

भास्करने अन्य दो प्रकारके स्वयंवह-यन्त्रोंका भी वर्णन किया है। इन दोनों का वर्णन ब्रह्मगुप्तके ग्रन्थमें नहीं है। एकका वर्णन सुनिये। भ्रम-यन्त्रके द्वारा चक्रके घेरेमें दो अङ्गुल गहरी और दो अङ्गुल चौड़ी एक नली बनाकर उसे दो आधारों पर रक्खो। नलीके ऊपर ताड़के पत्ते मोमसे जोड़ दो। इसके बाद ताड़के पत्ते में छेद करके नलीमें पाग भर दो। फिर दूसरी जगह छेद करके नली के एक ओर पानी भरो। तब छेद बन्द कर दो। बस जलसे आकृष्ट चक्र आप-ही-आप घूमेगा। पारा द्रव होनेपर भी भारी होता है। इसलिए जल उसे हटा न सकेगा।

क्या इसका यह मतलब है कि पारा नीचे ही रहेगा; जल पारेको ठेलेगा, इससे चक्र घूमेगा? यदि यही अर्थ ठीक हो, तो काल्पनिक सदावह-यन्त्रका यह एक अच्छा नमूना है।

इस काल्पनिक यन्त्रके साथ बीसवीं शताब्दीके इंगलेंडके एक सदावह-यन्त्रकी तुलना कोजिये। एक कुण्डमें पारा है और कुण्डकी दाहिनी तरफ़ एक नलमें जल है। पारावाले कुण्डके ऊपर एक चक्र है और भीतर भी एक चक्र है। एक सूत्र दोनों चक्रोंको वेष्टन किये हुए है। सूत्रमें छोटी-छोटी गाँठे-सी हैं। वे पानीमें उतराकर ऊपर उठेगी। इसके साथ ही दोनों चक्र मी घूमेंगे।

भास्कराचार्य के एक और भी स्वयंवह-यन्त्रका वर्णन सुनिये— एक चक्रके घेरेमें घटियां बँधी हुई हैं। इस चक्रको दो आधारों-