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स्वयंवह-यन्त्र

पर रखिये। ताम्रादि धातुसे बने हुए अङ्कुश के आकारके एक नलसे कुण्डका जल घटियोंमें जायगा। तब भरी हुई घटियोंसे आकृष्ट होकर चक्र घूमने लगेगा। चक्रसे घिरा हुआ जल यदि चक्रके नीचेकी नलीके द्वारा फिर कुण्डमें चला जाय तो कुण्डमें फिर जल भरने की आवश्यकतान रहेगी।

यहाँपर भास्कराचार्यने टेढ़े आकारके अङ्कुश यन्त्र या "कुक्कुटनाड़ी" का प्रयोग बतलाया है। छिन्न कमल या कमलिनीकी नालसे उन्होंने कुक्कट-नाड़ी का दृष्टान्त भी दिया है। उन्होंने कहा है कि इस कुक्कुट-नाड़ीको शिल्पी लोग अच्छी तरह जानते हैं। "चक्रच्युतं तदुदकं कुण्डे याति प्रणालिकया"—कहकर उन्होंने नीचेका जल ऊपर जानेकी सम्भावना की है। योरपमें आजकल भी ऐसे यन्त्र पाये जाते हैं।

भास्कराचार्य स्वयंवह-यन्त्रको खिलौनेकी तरह समझते थे। इसी लिए लल्ल और ब्रह्मगुप्तके स्वयंवह-यन्त्रोंको ग्राम्य कहकर उन्होंने उनकी निन्दा की है। क्योंकि वे सापेक्ष हैं अर्थात् जल न रहनेपर फिर उनमें जल डालना पड़ता है। जिस यन्त्रमें कोई चमत्कारकारिणी युक्ति हो वह, भास्करकी रायमें, ग्राम्य नहीं।

पूर्वोक्त बातोंसे मालूम हुआ कि प्राचीन कालके लोग स्वयंवह-यन्त्र उसे कहते थे जिसे चलानेके लिए किसी मनुष्यकी आवश्यकता न पड़े और जो एक बार चलनेपर बराबर चलता रहे। अर्थात् स्वयंवह-को वे सदावह भी बनाना चाहते थे। आधुनिक विज्ञानकी राय है कि कोई चीज सदा नहीं चल सकती। जिस यन्त्रमें जितनी शक्ति होती है उतनी ही बनी रहती है, घटती-बढ़ती नहीं। पूर्वकालके