पृष्ठ:लेखाञ्जलि.djvu/५५

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७—सौर जगत्‌की उत्पत्ति।

यह विषय बहुत पुराना है, पर है बड़ा मनोरञ्जक। इसपर आजतक बहुत कुछ लिखा भी जा चुका है। अँगरेज़ी-भाषामें तो इसपर न मालूम कितने ग्रन्थ बड़े-बड़े विद्यमान हैं। फिर भी इस विषयमें नईनई खोज होती ही जाती है और नये-नये सिद्धान्त अस्तित्वमें आते ही जाते हैं। हिन्दीमें इस विषयकी कोई सर्वमान्य पुस्तक अबतक नहीं प्रकाशित हुई। लेख अलबत्ते कई निकल चुके हैं। पर उनमें कुछ जटिलता है। कुछ समय हुआ, बंगलाभाषाके 'प्रवासी' नामक मासिक पत्रमें, बाबू अपूर्वचन्द्र दत्तका एक लेख, बहुत अच्छा, निकला था। उसमें जटिलता कम है। अतएव इस लेखमें उसीका आशय दिया जाता है।

सृष्टिके आरम्भमें यह जगत्, अनन्त आकाशमें, परमाणुओंके रूपमें विद्यमान था। अपरिमेय कालतक वह इसी रूपमें था। जब विधाताने इस सृष्टिकी रचना करनी चाही तब उसने इन परमाणुओंके