पृष्ठ:लेखाञ्जलि.djvu/७

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पाठकों का मनोरञ्जन भी हो और साथ ही उनके ज्ञानको सीमा भी बढ़ती रहे। इसी से उसने अद्भुत जीव-जन्तुओं का वर्णन करके कौतूहल की उद्दीपना करते हुए महाप्रलय और सौर जगत् की उत्पत्ति के सदृश लेखोंसे गहन विषयों का भी ज्ञानोत्पादन करानेकी चेष्टा की है। इसी तरह दण्डदेवके आत्म-निवेदनके सदृश मनोरञ्जक और कौतुकवर्द्धक लेख लिखकर उसने देहाती पञ्चायतों, देशी ओषधियों और किसानोंके संघटन के सदृश देशोपकारी काय्याँ की ओर भी पाठकों का ध्यान आकृष्ट किया है। बात यह कि उसने मनोरञ्जन के साथ-हीसाथ ज्ञानोन्नतिके उद्देश्य को भी सदा अपनी दृष्टिके सामने रक्खा है।

इस संग्रहके प्रायः सभी लेख पुराने होनेपर भी पुराने नहीं हो सकते। क्योंकि उनमें ऐसी बातों और ऐसे विषयों का वर्णन है जिनकी उपयोगिता को समय कम नहीं कर सकता। और यदि वह कम भी हो जाय या नष्ट ही क्यों न हो जाय तो भी क्या हिन्दीभाषा के प्रेमियों का इतना भी कर्तव्य नहीं कि वे पुराने लेखकों की कृतियों का अवलोकन करके, विस्मृति के गर्त में गिर जाने से उन्हें बचा लें? वे कृपा करके देखें कि हिन्दी-साहित्यकी प्रारम्भिक अवस्थामें, उसकी उन्नतिके लिए, किस-किसने कितने और कैसे प्रयत्न किये थे। इस बातका यत्किञ्चित् ज्ञान उन्हें इस पुस्तक के अवलोकन से भी हो जानेकी आशा है।

इसमें कुछ अन्य अभिन्नत्माओं के भी लेख सम्मिलित हैं। एक को छोड़कर और सभी लेख “सरस्वती से उद्धृत हैं।

दौलतपुर,(रायबरेली)

१ जनवरी १९२८
महावीर प्रसाद द्विवेदी