और समय पाकर वह उसी भूमि में बढ़कर गुप्तवास में ही युवा हुआ । उसका नाम ऋचीक रखा गया । युवा होने पर और्व ने उसे सब ऊंच-नीच समझाकर माहिष्मतों के राज्य से दूर सरस्वती - तीर पर आश्रम बनाकर रहने की आज्ञा दी । सरस्वती- तट पर बस जाने के कुछ काल ही बाद कान्यकुब्ज के राजा गाधि ने उन्हें अपनी पुत्री सत्यवती ब्याह दी । समय पाकर जिस समय सत्यवती ने पुत्र प्रसव किया , उसी समय उसकी माता ने भी किया । सत्यवती के पुत्र का नाम जन्मदग्नि हुआ और गाधिपुत्र का विश्वामित्र । दोनों मामा -भांजे सरस्वती - तट पर ऋचीक ऋषि के आश्रम में पलने और शिक्षण पाने लगे। और्व ने अपने पुत्र ऋचीक को वेदज्ञ बनाया था । ऋचीक ने भी अपने पुत्र और साले को वेदविद् बनाया । फलत: जमदग्नि और विश्वामित्र उसी समय ख्यातनामा पुरुष हो गए थे। आगे चलकर दोनों मामा - भांजों ने मिलकर वेद की ऋचाएं बनाईं और वेदर्षि प्रसिद्ध हुए । यह वह काल था जब आर्यों के राज्यों ने गंगा और यमुना के तट छू लिए थे। दैत्य और असुर अनार्य मधुपुरी (मथुरा ) से पीछे हटते और नर्मदा- तट पर अपने आवास बनाते जाते थे। सरस्वती और दृषद्वती का मध्यवर्ती प्रदेश आर्यों का केन्द्रस्थल बनता जा रहा था । सूर्य और चन्द्रवंश के खण्डराज्यों के अतिरिक्त यहां यदु, पुरु , भरत , तृत्सु , तुर्वशु , द्रुहूं , जह जातियों के जनपद स्थापित हो चुके थे। उधर वाराणसी के गंगा - तट से नर्मदा तक आर्यों के योद्धा आगे बढ़ते जा रहे थे। नए - नए राज्यों की स्थापना हो रही थी । विश्वामित्र के पिता गाधिन् जह वंश के राजा थे । एक बार ऋचीक उनके यहां आए और एक सहस्र श्यामकर्म घोड़े गाधि को देकर उनकी पुत्री सत्यवती मांग ली । इस प्रकार गाधिपुत्री से उनका विवाह हुआ । उस युग में भृगुवंश महामहिमावान् था ही । च्यवन के सौतेले भाई उशनस शुक्र जहां सब दैत्यों के याजक गुरु थे, वहां महामहिमावान् ययाति के श्वसुर भी थे । ये ययाति भी साधारण राजा न थे, अपितु , पुरु , यदु, अनु , द्रुह्यु और तुर्वशु इन पांच वंशों के मूल पुरुष थे। यद्यपि उनके आचार आर्यों से भिन्न थे, परन्तु इससे उनकी प्रतिष्ठा में कमी नहीं आती थी । हैहयों से विग्रह होने पर उन्होंने यदु, तुर्वशु और द्रुह्युओं का आश्रय लिया । ऋचीक ऋषि का असुर याजकवंशी होने से आर्यावर्त के बाहर दूसरी जातियों पर भी भारी प्रभाव था । जमदग्नि का विवाह इक्ष्वाकु वंश की राजकुमारी रेणुका के साथ हुआ था । उनके पांच पुत्र हुए, सबसे छोटे परशुराम थे। परशुराम उदग्र प्रकृति के थे। ऋचीक ऋषि ने हैहयों द्वारा अपने कुलनाश और अपमान की इतनी भावना उनके मन में भर दी कि तरुण परशुराम का रक्त खौलने लगा और उसने शास्त्रों के साथ शस्त्रों की भी संपूर्ण शिक्षा प्राप्त की । संयोग से ही एक दुर्घटना के कारण परशुराम का उग्र स्वभाव प्रकट हो गया । परशुराम की माता रेणुका का मृत्तिकावती के राजा चित्ररथ के साथ गुप्त संबंध अकस्मात् प्रकट हो गया । जमदग्नि यों शान्त पुरुष थे , पर इस घटना से वे इतने उत्तेजित हुए कि उन्होंने अपने पुत्रों को आज्ञा दी कि वे तुरन्त ही अपनी माता का सिर काट लें । सभी पुत्र इस जघन्य कार्य को न कर सके। किन्तु परशुराम ने परशु उठा खट से माता का सिर काट लिया । जब सरस्वती - तीर पर जमदग्नि के आश्रम में यह खेदजनक घटना घट रही थी , हैहयों का प्रबल प्रताप भारत पर छा रहा था । उनका राज्य मथुरा से नर्मदा -तट के प्रदेशों
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