पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पूर्वनिवेदन मेरे हृदय और मस्तिष्क में भावों और विचारों की जो आधी शताब्दी की अर्जित प्रज्ञा - पूंजी थी , उस सबको मैंने वयं रक्षाम: में झोंक दिया है । अब मेरे पास कुछ नहीं है । लुटा - पिटा - सा , ठगा सा श्रान्त - क्लांत बैठा हूं। चाहता हूं - अब विश्राम मिले । चिर न सही , अचिर ही । परन्तु यह हवा में उड़ने का युग है। मेरे पिताश्री ने बैलगाड़ी में जीवन यात्रा की थी , मेरा शैशव इक्का टांगा घोड़ों पर लढ़कता तथा यौवन मोटर पर दौड़ता रहा । अब मोटर और वायुयान को अतिक्रान्त कर आठ सहस्र मील प्रति घंटा की चाल वाले राकेट पर पृथ्वी से पांच सौ मील की ऊंचाई पर मेरा वार्धक्य उड़ा चला जा रहा है । विश्राम मिले तो कैसे ? इस युग का तो विश्राम से आचूड़ वैर है। बहुत घोड़ों को , गधों को , बैलों को बोझा ढोते - ढोते बीच राह मरते देखा है। इस साहित्यकार के ज्ञानयज्ञ की पूर्णाहुति भी किसी दिन कहीं ऐसे ही हो जाएगी । तभी उसे अपने तप का सम्पूर्ण पुण्य मिलेगा । गत ग्यारह महीनों में दो - तीन घंटों से अधिक नहीं सो पाया । सम्भवत : नेत्र भी इस ग्रन्थ की भेंट हो चुके हैं । शरीर मुा गया है, पर हृदय आनन्द के रस में सराबोर है। यह अभी मेरा पैसठवां ही तो बसन्त है । फिर रावण जगदीश्वर मर गया तो क्या ? उसका यौवन, तेज , दर्प , दुस्साहस , भोग और ऐश्वर्य, जो मैं निरन्तर इन ग्यारह मासों में रात -दिन देखता रहा हूं , उसके प्रभाव से कुछ - कुछ शीतल होते हुए रक्तबिन्दु अभी भी नृत्य कर उठते हैं । गर्म राख की भांति अभी भी उनमें गर्मी है। आग न सही, गर्म राख तो है । फिर अभी तो मुझे मार खानी है, जिसका निमंत्रण मैं पहले दे चुका हं । मार तो सदैव खाता रहा हूं । इस बार का अपराध तो बहुत भारी है। वयं रक्षाम : में प्राग्वेदकालीन जातियों के सम्बन्ध में सर्वथा अकल्पित अतर्कित नई स्थापनाएं हैं , मुक्त सहवास है, विवसन विचरण है, हरण और पलायन है। शिश्नदेव की उपासना है, वैदिक - अवैदिक अश्रुत मिश्रण है । नर - मांस की खुले बाजार में बिक्री है, नृत्य है, मद है, उन्मुख अनावृत यौवन है । यह सब मेरे वे मित्र कैसे बर्दाश्त करेंगे भला , जो अश्लीलता की संभावना से सदा ही चौंकायमान रहते हैं । परन्तु मैं तो भयभीत नहीं हूं । जैसे आपका शिव मन्दिर में जाकर शिव -लिंग पूजन अश्लील नहीं है, उसी भांति मेरा शिश्न - देव भी अश्लील नहीं है । उसमें भी धर्म - तत्त्व समावेशित है । फिर वह मेरा नहीं है , प्राचीन है, प्राचीनतम है। सनातन है, विश्व की देव , दैत्य , दानव, मानव आदि सभी जातियों का सुपूजित है। सत्य की व्याख्या साहित्य की निष्ठा है। उसी सत्य की प्रतिष्ठा में मुझे प्राग्वेदकालीन नृवंश के जीवन पर प्रकाश डालना पड़ा है। अनहोने , अविश्रुत , सर्वथा अपरिचित तथ्य आप मेरे इस उपन्यास में देखेंगे; जिनकी व्याख्या करने के लिए मुझे उपन्यास पर तीन सौ से अधिक पृष्ठों का भाष्य भी लिखना पड़ा है। 1 फिर भी आप अवश्य