ही मुझसे सहमत न होंगे। परन्तु आपके गुस्से के भय से तो मैं अपने मन के सत्य को मन में रोक रसुंगा नहीं। अवश्य कहूंगा और सबसे पहले आप ही से । साहित्य जीवन का इतिवृत्त नहीं है । जीवन और सौन्दर्य की व्याख्या का नाम साहित्य है। बाहरी संसार में जो कुछ बनता -बिगड़ता रहता है, उस पर से मानव हृदय विचार और भावना की जो रचना करता है, वही साहित्य है । साहित्यकार साहित्य का निर्माता नहीं, उद्गाता है । वह केवल बांसुरी में फूंक भरता है। शब्द - ध्वनि उसकी नहीं , केवल फूंक भरने का कौशल उसका है। साहित्यकार जो कुछ सोचता है, जो कुछ अनुभव करता है; वह एक मन से दूसरे मन में , एक काल से दूसरे काल में , मनुष्य की बुद्धि और भावना का सहारा लेकर जीवित रहता है । यही साहित्य का सत्य है । इसी सत्य के द्वारा मनुष्य का हृदय मनुष्य के हृदय से अमरत्व की याचना करता है। साहित्य का सत्य ज्ञान पर अवलम्बित नहीं है, भार पर अवलम्बित है । एक ज्ञान दूसरे ज्ञान को धकेल फेंकता है । नये आविष्कार पुराने आविष्कारों को रद्द करते चले जाते हैं । पर हृदय के भाव पुराने नहीं होते । भाव ही साहित्य को अमरत्व देता है। उसी से साहित्य का चिर सत्य प्रकट होता है । परन्तु साहित्य का यह सत्य नहीं है। असल सत्य और साहित्य के सत्य में भेद है । जैसा है वैसा ही लिख देना साहित्य नहीं है। हृदय के भावों की दो धाराएं हैं ; एक अपनी ओर आती है, दूसरी दूसरों की ओर जाती है । यह दूसरी धारा बहुत दूर तक जा सकती है विश्व के उस छोर तक । इसलिए जिस भाव को हमें दूर तक पहुंचाना है, जो चीज़ दूर से दिखानी है, उसे बड़ा करके दिखाना पड़ता है । परन्तु उसे ऐसी कारीगरी से बड़ा करना होता है, जिससे उसका सत्य - रूप बिगड़ न जाए, जैसे छोटे फोटो को एन्लार्ज किया जाता है । जो साहित्यकार मन के भाव के छोटे - से सत्य को बिना विकृत किए इतना बड़ा एन्लार्ज करके प्रकट करने की सामर्थ्य रखता है कि सारा संसार उसे देख सके , और इतना पक्का रंग भरता है कि शताब्दियां सहस्राब्दियां बीत जाने पर भी वह फीका न पड़े, वही सच्चा और महान् साहित्यकार है । केवल सत्य की ही प्रतिष्ठा से साहित्यकार का काम पूरा नहीं हो जाता। उस सत्य को उसे सुन्दर बनाना पड़ता है। साहित्य का सत्य यदि सुन्दर न होगा तो विश्व उसे कैसे प्यार करेगा ? उस पर मोहित कैसे होगा ? इसलिए सत्य में सौन्दर्य की स्थापना करनी पड़ती है। सत्य में सौन्दर्य की स्थापना के लिए , आवश्यकता है संयम की । सत्य में जब सौन्दर्य की स्थापना होती है, तब साहित्य कला का रूप धारण कर जाता है । सत्य में सौन्दर्य का मेल होने से उसका मंगल रूप बनता है । यह मंगल रूप ही हमारे जीवन का ऐश्वर्य है । इसी से हम लक्ष्मी को केवल ऐश्वर्य की ही देवी नहीं , मंगल की भी देवी मानते हैं । जीवन जब ऐश्वर्य से परिपूर्ण हो जाता है, तब वह आनन्द - रूप हो जाता है और साहित्यकार ब्रह्माण्ड के प्रत्येक कण को आनन्द - रूपममृतम् के रूप में चित्रित करता है इसी को वह कहता है ‘ सत्यं शिवं सुन्दरम् । वैशाली की नगरवधू लिखकर मैंने हिन्दी उपन्यासों के सम्बन्ध में एक यह नया मोड़ उपस्थित किया था कि अब हमारे उपन्यास केवल मनोरंजन की तथा चरित्र -चित्रण भर की सामग्री न रह जाएंगे । अब यह मेरा नया उपन्यास वयं रक्षाम : इस दिशा में अगला कदम है । इस उपन्यास में प्राग्वेदकालीन नर, नाग , देव , दैत्य , दानव , आर्य, अनार्य
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