पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/१२१

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द्वार - पुरुष का यह वचन सुनकर और मोतियों की वह बहुमूल्य माल देख , उस असुरराज ने आश्चर्य प्रकट किया । फिर अपने मन्त्रियों की ओर देखकर उसने कहा - “ ऐसी मुक्तामाल द्वार - पुरुष को देनेवाला अवश्य ही कोई महिमावान् है। तुम स्वयं उसकी अभ्यर्थना कर उसे मेरे पास ले आओ। " मन्त्रिगण अर्घ्य पाद्य ले द्वार पर आए। रावण का अर्घ्य पाद्य से सम्मान किया और कहा - “ महाभाग, अब आप चलकर हमारे असुरपति से भेंट कीजिए । " हंसते -हंसते शम्बर के सम्मुख जाकर रावण ने कहा - “ असुरराज शम्बर की जय हो ! मैं पौलस्त्य विश्रवा मुनि का पुत्र रावण, लंकापति , राजमहिषी मायादेवी का बहनोई, आपका साढू, आपके दर्शनार्थ आया हूं। आप मेरे ज्येष्ठ हैं । मैं आपका अभिवादन करता हूं। " रावण के ऐसे वचन सुनकर शम्बर दोनों हाथ फैलाकर आसन से उठकर रावण की ओर दौड़ा । उसने अंक में भरकर रावण को बार - बार आलिंगन करके कहा - “ आज मैं धन्य हुआ , प्रतिष्ठित हुआ। पौलस्त्य रावण , तुम पूजार्ह हो । अभ्यर्थना करता हूं । इस असुरपुरी में तुम्हारा स्वागत है । भाई, यह तुम्हारी ही पुरी है । तुम अपने ही घर आए हो । " आनन्दातिरेक से शम्बर के नेत्रों से जलधार बह चली । उसने अपने मन्त्रियों को आज्ञा दी कि नगर में उत्सव मनाया जाए, सब कोई आज दीपावली करें । यह हमारा प्रिय सम्बन्धी पौलस्त्य रावण प्रजापति के वंश का है - सुप्रतिष्ठित है । इसके आने से मेरा कुल धन्य हुआ मेरा यह नगर पवित्र हुआ । फिर उसने रावण को अपने पास आसन पर बैठाकर हंसते हुए कहा - “ किन्तु यह क्या ? लंकाधीश, एकाकी, बिना ही परिच्छद ? " रावण ने भी हंसते -हंसते कहा - “ घर में आने के लिए परिच्छद की क्या बात ! आपके दर्शनों का चाव खींच लाया । देवी मन्दोदरी भी अपनी प्राणाधिक बहिन को बहुत याद करती हैं । मैंने सोचा - पूज्या हैं वे ,श्लाघ्या हैं वे , चलकर पद - वन्दना कर आऊं । " शम्बर ने कहा - “ तो चलो बन्धु , अन्तःपुर में देवी तुम्हें देखकर प्रसन्न होंगी । " उसने चेटी की ओर देखकर कहा - “ अरी जा , देवी से निवदेन कर , हमारा बन्धु लंकाधिपति पौलस्त्य रावण आया है और अब हम अवरोध में आ रहे हैं । " चेटी मस्तक अवनत कर , ‘ जो आज्ञा कह चली गई और असुरराज शम्बर रावण के कन्धों पर हाथ रखकर धीरे - धीरे बातें करते हुए अन्तःपुर में प्रविष्ट हुए ।