पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/१२५

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“ यह आपने कैसे समझ लिया ? " " आपके इस चन्द्रच्छटा - सम उज्ज्वल हास से । " “किन्तु मैं ऐसी अकृतज्ञ नहीं हूं कि आपकी स्तुति के लिए आपका आभार न मानूं। ” “ यह तो मेरे अन्तःकरण की श्रद्धा है । " फिर एकाएक उत्तेजित होकर उसने कहा - “सच तो यह है कि मेरा मन तुम पर अनुरक्त है सुन्दरी ! कहो, वह कौन बड़भागी है जिसके लिए तुमने यह साज सजा है ? वह कौन भाग्यवान् है जो तुम्हारे इन कमल - सी सुगन्ध वाले अधर - पल्लवों का चुम्बन करेगा ? स्वर्णघट के समान तुम्हारे यह भरे हुए कठोर कुच आज किसके आलिंगन की प्रतीक्षा में हैं ? प्रिये , आज तुम मुझे रति दो । मैं लंका का स्वामी , पौलस्त्य रावण काम - पीड़ित हो तुमसे नम्रतापूर्वक रतिदान मांग रहा हूं । मैं जब से यहां आया हूं तेरी मनोहारी मूर्ति हृदय में रख , रात -दिन उसकी आराधना करता हूं । " इतना कहकर रावण अत्यन्त उदग्र भाव से दोनों हाथ फैलाकर मायावती को अपने आलिंगन में बांधने को आगे बढ़ा । उसका यह भाव देख और उसका अभिप्राय समझ मायावती थर- थर कांपने लगी । उसने कहा - "लंकेश, यह तुम क्या कह रहे हो ? तुम मेरी छोटी भगिनी के पति , मेरे सम्बन्धी हो । मैं धर्म से तुम्हारी ज्येष्ठा हूं। सोचो तो , मेरे पति यह सुनेंगे तो क्या कहेंगे ! तुम्हारे भाई कुबेर लोकपाल त्रिलोक में विख्यात हैं । तुम भी धर्माधर्म को समझते हो - ऋषिकुमार हो । इसलिए ऐसा न करो। जो मेरा पति है, उसी के लिए मैं शृंगार करती हूं । मैं असुर कुल की स्त्री हूं - पत्नी हूं ! तुम्हारी रक्ष - संस्कृति है , मेरे सत्त्व की तुम रक्षा करो । कहो - वयं रक्षामः। " रावण ने हंसकर कहा - “ कहीं असुर -रमणियों के भी पति हआ करते हैं ? फिर यह एकान्त रति का नियम तो मानवों में है । इसलिए मेरी अभिलाषा तुम्हें पूर्ण करनी पड़ेगी । " इतना कहकर रावण ने झपटकर मायावती को अपने अंकपाश में दबोच लिया । मायावती बाज के पंजे में दबी हुई कबूतरी की भांति छटपटाने लगी । उसका श्रृंगार अस्तव्यस्त हो गया , वस्त्र फट गए। केश बिखर गए। वह केले के पत्ते के समान कांपने लगी । मायावती की दुर्दमनीय प्रवृत्ति भी तीव्र अभिलाषाग्नि से उद्दीप्त हो उठी। कांपते हुए मृदु मन्द स्वर में कहा - “ नहीं, नहीं मत करो, ऐसा मत करो! ” । ___ इस पर रावण ने उसे और भी कसकर अपनी बलिष्ठ भुजाओं में भर लिया और उसके होठों के निकट अपने उत्तप्त होंठ ले जाकर कहा - “प्रिये , तू मेरी आराध्या है! ” उसने अपने अधर मायावती के अधरों से मिला दिए । मायावती भी आवेश में आ रावण के अंक में समा गई । वह भूल गई अपना स्त्री - धर्म , राजपद -मर्यादा , असुरराजमहिषी का गौरवमय पद । अपने पति असुरराज को वह भूल गई। कर्त्तव्याकर्त्तव्य को भूल गई । विश्व की सब बातों को भूल गई । उसने उन्मत्त हो , सब कुछ भूल , उस नायक के आलिंगन में अधखुले नेत्रों के साथ अपना शरीर अर्पित कर दिया ।