पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/१३२

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प्रदर्शित किया है। " इतना कहकर मायावती मौन हो गई । उसने नेत्र बन्द कर लिए। रावण ने कहा - “ देवि , इस असुर -निकेतन में यदि सत्य ही मेरे लिए कुछ भी अदेय नहीं है , तो तुम अपने ही को मुझे दे दो । इसके बदले में मेरा लंका का सम्पूर्ण साम्राज्य , मेरा यह अधम शरीर , मन- वचन -प्राण तुम्हारा है, तुम्हीं इसकी यथार्थ स्वामिनी हो । इस भयानक विचार को तुम त्याग दो । मुझ अनुगत दास पर प्रसन्न हो , अपने स्वर्णगात का यों दाह न करो। मैं मर्यादा के प्रतिकूल नहीं कह रहा हूं । ” किन्तु माया ने उत्तर नहीं दिया । रावण ने आर्तभाव से कहा - “ प्रसीदतु , प्रसीदतु ! " उसने कातर हो दोनों हाथ पसार दिए । मायावती ने नेत्र खोले । उसने कहा - “ हे विश्रवा मुनि के पुत्र , यह काम -विकार का काल नहीं है । मैं जिस पुरुष की पत्नी हूं , उसी के साथ सहगमन करूंगी। जाओ तुम , आयुष्मान्, तुम्हारा कल्याण हो -शिवास्ते सन्तु पन्थानः! ” । माया ने दोनों हाथ आकाश में उठा दिए । रावण ने अश्रुविमोचन करते हुए कहा - " प्रसीदतु , प्रसीदतु ! ” माया ने उसी भांति आंखें बन्द करके कहा - “माभूत् , माभूत् ! " रावण श्रद्धा से झुक गया । उसने माया की तीन परिक्रमाएं कीं । फिर दीर्घ निःश्वास लेकर बोला - “ तब जाता हूं देवि , देवों और मानवों के रक्त से बन्धुवर शम्बर का तर्पण करने । " और वह चल दिया । आंखों में अन्धकार और हृदय में तूफान भरे, अज्ञात दिशा की ओर अपने भीषण कुठार को कन्धे पर धरे ।