40. गन्धर्वो की नगरी में विकल और व्यथित रावण कन्धे पर परशु रखे, खिन्न - मन , वन - वन भटकता - घूमता रहा - कामोन्मत्त- सा , मदगन्धमत्त गजेन्द्र - सा , जिसकी हथिनी मर गई हो । कभी वह प्रलाप करता, कभी लम्बी - लम्बी सांसें खींचता । कभी किसी शिला - खण्ड पर निश्चेष्ट पड़ा रहता , कभी किसी सागर - सरोवर के तट पर बैठ उसकी लहरें गिनता । भूख-प्यास का भी उसे ज्ञान न रहा। शरीर -विन्यास का उसे विचार न रहा। केवल मायावती की मोहिनी मूर्ति उसके नेत्रों में बसी थी । उसी को अपने प्राणों में लय किए , वह मत्त मातंग - सा राक्षसेन्द्र रावण, अपनी स्वर्ण-लंका, रक्ष - साम्राज्य और उदग्र बाहुबल को भी भूल गया । __ घूमता - भटकता वह गन्धर्वो के देश में जा पहुंचा। आजकल पेशावर से लेकर डेरागाजीखां तक जो प्रदेश है, वह उस काल में गन्धों का देश कहाता था । यह प्रदेश सिन्धु नद के दोनों ओर होने से अति रमणीय था । यहां पर मनोरम वनोद्यान देख वह हर्षित हुआ। उद्यान में अनेक जाति के वृक्ष लगे थे , जिनके सुवासित मारुत ने उसके जलते हुए हृदय को शीतल कर दिया । वहां के सुपुष्पित लतागुल्म और मनोरम निर्झरों को देख वह प्रहर्षित हुआ। वहीं उसने गन्धों के राजा मित्रावसु को देखा । मित्रावसु के साथ उसकी पुत्री चित्रांगदा थी । चित्रांगदा का रूप पार्वती के समान दिव्य था । उस नवल रूप - यौवन सम्पन्ना अनिन्द्य सुन्दरी गन्धर्व-बाला को देख रावण स्तम्भित रह गया । उसका रूप संसार के नेत्रों को आनन्द देने वाला था । मित्रावसु ने अर्ध -विक्षिप्तावस्था में रावण को उस अगम गन्धर्व- क्षेत्र में विचरण करते देख , उसके निकट आकर कहा - “ तू कौन है आयुष्मान्, वीर गन्धों के इस अगम क्षेत्र में कैसे निर्भय घूम रहा है ? क्या तू आसन्न विपत्ति से असावधान है ? " रावण ने गन्धर्वो के राजा को और उनकी कन्या को देखकर खिन्न मन से कहा- “ मुझ विपन्न -विदग्ध , दुर्भाग्य - पीड़ित जन से आपका क्या प्रयोजन है ? मनोरम स्थान समझ , हैममारुत से अपने विदग्ध प्राणों को शीतल करने यहां चला आया हूं। यह यदि अगम क्षेत्र है तो मैं अभी चला जाता हूं । आप रुष्ट न हों । विशेषकर इस सुन्दरी को तो मैं क्रुद्ध करना ही नहीं चाहता। मैं जाता हूं, आपका कल्याण हो ! ” रावण के ऐसे वचन सुनकर मित्रावसु गन्धर्वराज ने हंसकर कहा - “ तेरी वाणी दृढ़ है, दृष्टि में तेज है, अचल गात है, प्रलम्ब बाह हैं , प्रशस्त ललाट है, विशाल वक्ष है, क्षीण कटि है , तू निस्सन्देह श्रेष्ठ कुल का पुरुष है । परन्तु खिन्न है, यह तेरे भारी - भारी प्रश्वासों से मैंने जान लिया । मैं गन्धर्वो का राजा मित्रावसु गन्धर्व हूं और यह मेरी प्रिय पुत्री चित्रांगदा है । मैं तुझ पर प्रसन्न हूं। कह, मैं तेरा क्या प्रिय करूं ? " रावण ने गन्धों के राजा के ये वचन सुनकर कहा - " सुनकर संप्रहर्षित हुआ। मैं विश्रवा का पुत्र पौलस्त्य रावण हूं। लंका का अधीश्वर हूं। किन्तु आप ज्येष्ठ हैं , पूजार्ह हैं । मैं
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