पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/१३६

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दिव्य गन्धर्व-कन्या चित्रांगदा के साथ रति -विलास कर श्रान्त- श्रमित रावण सो गया । मदिरा से मत्त दिव्यांगनाएं भी उस केलि - भवन में , जहां जिसे स्थान मिला , सो गईं । अर्धरात्रि अब व्यतीत हो रही थी । हास -विलास - क्रीड़ा और विहार से वे थक गई थीं । मदिरा के प्रभाव से बेसुध हो वे सब इधर - उधर सो गईं। वह केलि - भवन उस समय शरत्कालीन आकाश की शोभा धारण कर रहा था । किसी स्त्री के केश खुलकर बिखर गए, किसी के फूलों के गजरे टूटकर गिर पड़े, किसी के आभूषण इधर - उधर बिखर गए । मद्यपान के प्रभाव और नृत्य की थकावट से चूर - चूर हो दिव्यांगनाएं अचेत सोई पड़ी थीं । बहुतों के वस्त्रादि उनके शरीर से पृथक् हो गए थे। बहुतों के कण्ठहार टूट - टूटकर भूमि पर बिखरे पड़े थे। कुछ सुन्दरियों के हार उनके स्तनों के बीच में पड़े उनकी सांस के साथ ऊपर -नीचे हो रहे थे। उनके मुंह से मदिरा की मदिर गन्ध आ रही थी । अनेक प्रमदाएं मदिरा से मदोन्मत्त हो परस्पर आलिंगन कर एक - दूसरे से लिपटी पड़ी थीं । इस समय वे एक गुंथी हुई सुन्दर फूलों की माला - सी सज रही थीं । रात गल रही थी , सब कोई सो रहे थे। केवल कक्ष में सोने के आधारों पर रखे हुए मणिदीप ही उन सुन्दर रमणियों के रूप - सागर को देख रहे थे। इन दिव्यांगनाओं में कोई गोरी, कोई काली , कोई सांवली और कोई स्वर्णवर्णा थी । इन सुन्दरियों के कानों के हीरे के कुण्डलों की अमन्द आभा से वह कमरा ऐसा जगमग कर रहा था , मानो तारागण के प्रकाश से आकाश देदीप्यमान हो रहा हो । नशे की झोंक में वे गन्धर्व बालाएं जहां थीं , वहीं सो गई थीं । उनकी बगल में दोनों ओर अनेक वस्तुएं पड़ी थीं । मृदंगवाली मृदंग के साथ, वीणावाली वीणा को अंक में लिए और डिमडिम बजानेवाली डिमडिम के साथ सोई पड़ी थी । राक्षसराज रावण सो रहा था । वह उस समय सघन घनश्याम जलधर की शोभा धारण किए हए था । उसके शरीर पर सुगन्धित रक्तचन्दन का लेप हो रहा था । उसके मदरंजित निमीलित लाल नेत्र और विशाल भुजाएं , उस समय अत्यन्त शोभनीय प्रतीत हो रही थीं । पर्यंक पर फैली हुई उसकी भुजाएं , जिनमें स्वर्ण के भुजबंध बंधे थे, खड़े हुए क्रुद्ध भुजंग के समान दीख रही थीं । उसके स्कन्ध वृषभ के समान थे। उसकी सांस के साथ पान , पूग और मद्य की गन्ध आ रही थी उसका स्वर्ण-मुकुट अपने स्थान से हट गया था । सोते हुए रावण के मुख पर उसके कर्ण-कुण्डल बड़े सुन्दर लग रहे थे। सोया हुआ रावण ऐसा प्रतीत होता था , जैसे गंगा में गजराज पड़ा सो रहा हो । रावण की बगल में ही चित्रांगदा सोई पड़ी थी । उसकी सुषमा निराली थी । उसके गौर वर्ण पर पुष्पाभरण अपूर्व शोभा विस्तार कर रहे थे। उसका लावण्य अपूर्व था । उसके अंग पर मकड़ी के जाले के समान महीन वस्त्र थे, जिनमें छन - छनकर उसका स्वर्णगात अपूर्व शोभा-विस्तार कर रहा था । कमल की पंखुड़ी के समान उसके लाल अधर मन्द - मन्द हिल रहे थे । वह कोई सुख - स्वप्न देख रही थी । ऐसा प्रतीत होता था जैसे चन्द्रमा की चांदनी वहां सिमटी पड़ी हो ।