पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/१३५

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ने कहा - “ स्वामिन्, यह क्रमसर तीर्थ है । अब आप इस पुनीत सरोवर में स्नान कर अपना श्रम दूर कीजिए। " इतना कहकर उसने सखियों को संकेत किया । अब वे सब घेरकर रावण को सरोवर के तट पर ले गईं। उन दिव्यांगनाओं के साथ रावण ने यथेष्ट जल-विहार किया । फिर उन दिव्यांगनाओं ने रावण को नवीन वस्त्राभरण धारण कराए। प्रियतमा गन्धर्वनन्दिनी - सहित उसे दिव्यासन पर बैठाकर स्वर्णथालों में विविध प्रकार के स्वादिष्ट भुने मांस , मिष्टान्न , पकवान परोसे। सुगन्धित मसालेदार मद्य मणिकांचन पात्रों में भर भरकर पीने को दिया । रावण उन दिव्यांगनाओं के सान्निध्य में , उस मनोरम उपवन में , स्वादिष्ट उत्तम भोजन और सुगन्धित मद्य पाकर भूल गया असुरपुरी के अन्धकूप की वेदना और परम रूपवती मायावती को । इसी प्रकार सेवा -सत्कार , स्नान - अर्चना , आहार-विहार से सब भांति तृप्त कर , रावण की सब क्लान्ति हरण कर चित्रांगदा उसे दिव्य कनकरथ में बैठाकर अपने मणिमहल में ले गई। वह मणिमहल भी बड़ा विचित्र था । उसमें अनेक गुप्त और मांगलिक भवन थे । सूर्य के समान तेजस्वी उसका प्रकाश था । उसमें इन्द्रनील और महानील मणियों की वेदियां रची थीं जिनमें सोने की सीढ़ियां बनी थीं । वेदियों में सोने की जालियां लगी थीं । उसका फर्श स्फटिक मणि का था , जिसके जोड़ों में हाथीदांत लगा था । सीधे, चिकने और बहुत ऊंचे अनेक मणिमय खम्भों से उसकी शोभा अकथनीय हो गई थी । छत में और दीवारों में मोती मूंगा - माणिक्य और चांदी - सोने का काम किया हुआ था । उसमें बहुमूल्य बिछौने बिछे थे । उस मणिमहल में अनगिनत दिव्यांगनाएं रंग - बिरंगे सुन्दर वस्त्र पहने अपनी रूप - छटा से दिशाओं को आलोकित करतीं , कण्ठों में पुष्पहार पहने इधर - उधर अस्त - व्यस्त भाव से आ जा रही थीं । उनके तेज तथा उनके पहने हुए रत्नाभरणों के प्रकाश से वह मणिमहल जगमगा रहा था । ठौर - ठौर पर अनेक मोहक और अद्भुत पक्षी स्वर्ण-पिंजरों में टंगे थे। उनके कलरव से मणिमहल मुखरित हो रहा था । धीरे - धीरे सन्ध्या का अतिक्रमण हुआ । रात्रि हुई । महल अनगिनत सुगन्धित तेलों के दीपों तथा रत्नदीपों से आलोकित हो उठा । सखियां चित्रांगदा और रावण को अब अपने शयनागार में ले गईं। वहां एक बहुत ऊंचा अद्भुत पलंग बिछा था , जिस पर बहुमूल्य कोमल वस्त्र बिछा था । उस पर चन्द्रमा के समान एक छत्र लगा था । चित्रांगदा पति के अंक में उस शय्या पर जा बैठी। दिव्यांगनाएं चन्दन और मयूरपुच्छ की पंखियां लेकर उनकी हवा करने लगीं । कुछ चरण - सेवा में आ लगीं; कुछ मरकत के पात्रों में सुवासित मद्य ढाल -ढालकर देने लगीं; कुछ स्वर्ण-थालों में शूकर- हरिण और भैंसे का भूना मांस और विविध भोज्य पदार्थ ला - लाकर निवेदित करने लगीं । कुछ अंगराग, गन्ध - द्रव्य अंगों और वस्त्रों पर लगाने लगीं , कुछ केशर - कस्तूरी मिश्रित ताम्बूल अर्पण करने लगीं । कुछ ने कोमल तन्तुवाद्य संभाले, कुछ ने मधुर कंठ से आलाप लेना आरम्भ किया । कुछ मृदंग ले बैठीं । कुछ नृत्य करने लगीं। इस प्रकार रावण उस सुख सागर में जैसे खो गया । उसने विविध रास -रंग विहार किया । सब दिव्यांगनाओं ने चित्रांगदा की अनुमति पाकर स्वच्छन्द आहार -पान किया । सुवासित मद्य पी - पीकर तथा भुने हुए स्वादिष्ट मांस खा - खाकर वे सब भी असंयत होने लगीं। वे परस्पर एक - दूसरे का आलिंगन करने , हंसने , चूमने और ठिठोलियां करने लगीं ।