पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/१५०

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“मैं भी तेरे शौर्य से प्रसन्न हूं , तेरी युद्धाभिलाषा पूरी करूंगा, अभी तू विश्राम कर। " “नहीं महाभाग, कार्य- पूर्ति ही मेरा विश्राम है। उठाइए त्रिशूल ! " " तब जैसी तेरी इच्छा! " रुद्र ने हंकृति की , डमरूनाद कर त्रिशूल उठाया । डमरूनाद सुनकर बहुत - से रुद्रगण, गन्धर्व, देव , यक्ष आ जुटे । वे रुद्र और रावण का वह विकट युद्ध देखने लगे। रावण को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि रुद्र उसके परशु-प्रहार को कौशल से विफल कर रहे हैं और वे उस पर शूल का करारा वार ही नहीं कर रहे । उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि जैसे कोई गुरु किसी बालक को युद्ध -शिक्षण दे रहा हो । रावण ने अपने जीवन में ऐसा विकट पुरुष नहीं देखा था । अन्त में रावण थककर हांफने लगा । उसका सारा शरीर पसीने से भर गया । उसने अपना परशुफेंक दिया और सामने खड़ा हो गया । रुद्र ने हंसते हुए कहा - “ क्या थोड़ा विश्राम चाहता है तू रावण ? " " नहीं ,विराम चाहता हूं । आप युद्ध कहां करते हैं , खिलवाड़ करते हैं । " “किन्तु, तू युद्ध कर। " " नहीं , शंकर ! शंकर !! ” “ यह क्या ? " " हां - कल्याणं कुरु ! आप देव हैं , देवपति हैं , यह रावण आपका किंकर है, आप इसका कल्याण कीजिए- शंकर ! शंकर!! " रुद्र ने हाथ उठाकर हंसते हुए कहा - “ कल्याण हो तेरा। तेरा शौर्य स्तुत्य है, तू अजेय है, किन्तु तेरी रक्ष- संस्कृति क्या है ? " “ वयं रक्षामः- हम रक्षा करते हैं । यही हमारी रक्ष - संस्कृति है। आप देवाधिदेव हैं । आप देखते ही हैं कि आर्यों ने आदित्यों से पृथक् होकर भरत -खण्ड में आर्यावर्त बना लिया है । वे निरन्तर आर्यजनों को बहिष्कृत कर दक्षिणारण्य भेजते रहते हैं । दक्षिणारण्य में इन बहिष्कृत वेद -विहीन व्रात्यों के अनेक जनपद स्थापित हो गए हैं । फिर भारतीय सागर के दक्षिण तट पर अनगिनत द्वीपसमूह हैं , जहां सब आर्य, अनार्य , आगत , समागत , देव , यक्ष , पितर , नाग , दैत्य , दानव , असुर परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध करके रहते हैं । फिर भी सबकी संस्कृति भिन्न है, परन्तु हमारा सभी का ही नृवंश है और हम सब परस्पर दायाद बान्धव हैं । मैं चाहता हूं कि मेरी रक्ष- संस्कृति में सभी का समावेश हो , सभी की रक्षा हो । इसी से मैंने वेद का नया संस्करण किया है और उसमें मैंने सभी दैत्य -दानवों की रीति- परम्पराओं को भी समावेशित किया है, जिससे हमारा सारा ही नृवंश एक वर्ग और एक संस्कृति के अन्तर्गत वृद्धिगत हो । आप देखते हैं कि गत एक सौ वर्षों में तेरह देवासुर संग्राम हो चुके हैं जिनमें इन सब दायाद बान्धवों ने परस्पर लड़कर अपना ही रक्त बहाया । विष्णु ने दैत्यों से कितने छल किए! देवगण अब भी अनीति करते हैं । काश्यप सागर - तट की सारी दैत्य - भूमि आदित्यों ने छल - बल से छीनी है। अब सुन रहा हूं कि देवराट् इन्द्र चौदहवें देवासुर - संग्राम की योजना बना रहा है । ये सब संघर्ष तथा युद्ध तभी रोके जा सकते हैं , जब सारा नृवंश एक संस्कृति के अधीन हो । इसीलिए मैंने अपनी यह रक्ष - संस्कृति प्रतिष्ठित की है । आगे देव प्रमाण हैं ! "