पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/१४९

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इसे भगवान् रुद्र की सेवा में ले चलो। " तब गण रावण को घेरकर ले चले । रावण भी अपना परशु कन्धे पर रख उनके साथ चल खड़ा हुआ । ज्यों - ज्यों वह पर्वत - शृंग पर आरोहण करने लगा ; त्यों - त्यों वह उसका सौन्दर्य देख मोहित होने लगा। चारों ओर मोहक , हिमाच्छादित गिरिशृंगों पर सुनहरी सूर्य की किरणें पड़कर रंग -बिरंगी छटा दिखा रही थीं । पर्वतीय पक्षी जहां - तहां उड़ते बड़े भले प्रतीत होते थे। ज्यों - ज्यों वह ऊपर चढ़ता जाता था , चारों ओर हिमाच्छादित पर्वत - शृंगों की पंक्तियां ही दृष्टिगोचर होती थीं । ___ उसने कैलास-शिखर पर पहुंचकर विकट गणों से सेवित रुद्र को देखा । पिंगल जटा जूट , कटि में बाघ चर्म और दृष्टि में अन्तर्योति । रावण ने ऐसे प्रभावशाली पुरुष को पहले कभी नहीं देखा था । फिर भी उसने रुद्र को अभिवादन नहीं किया । अपना विकराल परशु कंधे पर रख निर्भय सम्मुख आ खड़ा हुआ । रुद्र ने देखा , देखकर नन्दी से पूछा - " यह कौन पुरुष है और किस अभिप्राय से हमारे पास आया है ? " नन्दी ने कहा - “ देव , इसने परिचय नहीं दिया । किन्तु यह कैलास के नीचे के अगम क्षेत्र में घूम रहा था । मेरे रोकने पर इसने मुझसे विग्रह किया और मुझे पराभूत किया । " । " तुझे पराभूत किया! श्लाघ्य है तब तो यह पुरुष । ” फिर रुद्र ने रावण की ओर मुख करके कहा - “ अपना परिचय दे पुरुष! मेरे अगम क्षेत्र में विचरने का कारण भी कह। " रावण ने कहा - “ महाभाग , मैं धनेश कुबेर का भाई रक्षपति लंकेश रावण हूं ; मैं इस वन में स्वच्छन्द विचरण कर रहा था , तभी इस पुरुष ने मुझे रोका। इसलिए विग्रह का दायित्व मुझ पर नहीं है । ” । रुद्र ने सुनकर हंसते हुए कहा - “ अच्छा , अच्छा , रावण तू ही है । स्वस्ति ! तू कुशलपूर्वक तो है ? मैंने कुबेर से तेरी बात सुनी है । पर तूने अपने ज्येष्ठ कुबेर की अवज्ञा की है, सो क्या सत्य है ? " “ इस पर कौन विचार कर सकता है? मैं तो ऐसा नहीं समझता। मेरे भाई कुबेर ने यक्ष- संस्कृति स्थापित की है , किन्तु मैंने रक्ष - संस्कृति की स्थापना की है। हमारा मूल मन्त्र है - वयं रक्षामः । जो हमसे सहमत है, उसे अभय । जो सहमत नहीं है, उसके लिए मेरा यह कुठार है। " रुद्र खूब जोर से हंस पड़े। उन्होंने कहा - “ आयुष्मन्, यही कुठार तेरा तर्क है ? " “ मूल तर्क तो यही है। " “किन्तु मैं तुझसे सहमत नहीं हूं। " " तो आपके लिए भी मेरा यह कुठार है। " " मेरे पास भी यह त्रिशूल है। " " तो अभी हमारा - आपका शक्ति - संतुलन हो जाए। " “ पर तू मेरा अतिथि है, समागत अभ्यागत है। " " आप इसी त्रिशूल से मेरा आतिथ्य कीजिए। मैं युद्ध की याचना करता हूं , आप दिक्पाल महाभाग यमदेव के वंशधर हैं । मैं विश्रवा मुनि का पुत्र हूं । आप मेरे ज्येष्ठ हैं । इसी से मैं आपका शिरच्छेद नहीं करता , युद्ध की याचना करता हूं। युद्धं देहि ! ”