पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/१६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

शिला - फलकों से आच्छादित थे। मीलों लम्बी सड़कें थीं , जो एक नगर को दूसरे से मिलाती थीं । वे संभवतः ज्योतिष -विद्या के भी पारंगत थे । वे ग्रहणों का विवरण तिथि और वार सहित जानते थे। इस मय जाति के वहां अनेक शिलालेख प्राप्त हुए हैं । कुछ हस्तलिखित ग्रंथ भी हैं । उन्हीं से उनके अन्तर्विद्रोह का पता लगता है, पर वह बहुत आधुनिक ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों ही का है । यह भी ज्ञात हुआ कि उन पर स्पेनवालों ने आक्रमण कर अंत में उनका विनाश किया और उनका इतिहास भी नष्ट कर डाला, जिससे इस जाति का पूर्ण इतिहास अन्धकार में डूब गया । प्राचीन राजधानी की सफाई और खुदाई से वहां मन्दिर , महल , पिरामिड , बाज़ार , नाट्यगृह, कब्रे तथा अट्टालिकाएं निकली हैं , जो आजकल के मन्दिरों के समान हैं । मीलों तक बस्ती के चिह्न देखने को मिलते हैं । एक ऐसे बृहत् आकार का मन्दिर है, जिसमें हज़ार खम्भे थे। योद्धाओं के भी भवन होते थे। योद्धा बड़ी - बड़ी ढालें बांधते थे। वहां की चित्र -विद्या, मूर्ति -विद्या तथा अलंकारों की बनावट मिस्र से मिलती है । ईस्वी सन् 1782 में स्पेन के किसी सेनानायक ने किसी अलभ्य ग्रंथ के आधार पर , जो उसे वहां गुफाओं में मिला था , एक ग्रंथ लिखा था , जिसका नाम था - टाइगर - प्राइस्टों की काली किताब । इसी ग्रंथ के आधार पर डॉ . गन ने , जो अमरीका के विख्यात आोलॉजिस्ट और एक्सप्लोरर थे, घोर अरण्य में एक अज्ञात राजपथ का पता लगाया था । पुरातत्त्वविद् कहते हैं कि उनकी विस्मयोत्पादक सभ्यता और संस्कृति यूरोप की सभ्यता के जोड़ की थी । उनकी श्री , समृद्धि और शक्तिशालिता , उनकी उन्नत तथा संगठित जीवन -प्रणाली, उनके उत्सव आयोग , उनकी स्थापत्य - कला की अद्भुत शक्ति और निपुणता आज के सभ्य संसार की स्पर्द्धा की वस्तु थी । वसन्त की सुषमा , वन , पर्वत , उपत्यका में फैली थी । दूर - दूर तक अन्न और कपास के खेत लहरा रहे थे। बीच-बीच में सुन्दर विशाल मैदानों में हरिण , शाबर, नीलगाय विचर रहे थे। पत्थर की बनी सड़कों पर दानव - नारियों की भीड़ लग रही थी । पुरुषों के चेहरे दाढ़ीदार न थे। उनके मस्तक पर रक्तचन्दन का लेप लगा था । वे कमरबन्द , कपास के सूती चोगे पहने हुए थे। उनके मुखमण्डल सुचिक्कण थे। युवतियों के अंगों पर रंगीन साड़ियां लिपटी हुई थीं । चन्दन, अगरु , केसर, कस्तूरी और अन्य सुगन्ध - द्रव्यों से उनके अंग सुवासित थे । उनके लम्बे - लम्बे सुचिक्कण केशों में , जो सुगन्धित तेलों में सिक्त थे , विविध पुष्प गुंथे हुए थे। सभी नगर के राजपथ पर जा रहे थे। नगर में आज वर्ष-नक्षत्र था । स्त्रियों और पुरुषों की टोलियां पृथक् - पृथक् नृत्य करतीं , गाती - बजातीं , आनन्दमग्न नगर में चारों ओर से आ रही थीं । नगर -निवासी उनका गन्ध - माला आदि से सत्कार कर रहे थे। राजभवन का आज अद्भुत शृंगार किया गया था । देव , देवेन्द्र , दानवेन्द्र स्वर्णाभरणों से सज्जित हो रहे थे। दानव -कुल में दानवेन्द्र ही ईश्वर थे और वे संसारव्यापी आदेश देने की क्षमता रखते थे। राजदर्शन साधारणतया प्रजावर्ग को नित्य नहीं होते थे। जिन्हें होते थे वे, उन पर अनेक प्रतिबन्ध रखते थे। परन्तु आज वर्ष-नक्षत्र के दिन सब कोई दानवेन्द्र के दर्शन - लाभ कर सकते थे। परन्तु दानवेन्द्र को कोई भी जन सीधा सम्बोधित नहीं कर सकता था , न दानवेन्द्र के सम्मुख सीधा खड़ा रह सकता था । प्रत्येक पुरुष को दानवेन्द्र के समक्ष घुटने टेककर बैठना और नतमस्तक होकर तथा राज -सचिव के माध्यम