साँचा:सहीसे देव कहकर निवेदन करना पड़ता था । आज राजवर्गी जन , राजपरिवार के जन , अमात्य , कोषाध्यक्ष, सेनानायक सभी सज - धजकर राजप्रासाद के बाहर मैदान में एकत्र हुए थे और होते जा रहे थे। वास्तव में आज के दिन राज्य की सारी कुमारिकाओं की नीलामी होनी थी । उसी का यह वर्ष- समारोह था । असुर -दानवकुल में यही नियम उन दिनों प्रचलित था । माता -पिता का सन्तानों पर कोई अधिकार न था । राजा राज - सेवा में कुमारों का स्वेच्छा से प्रयोग करता था , कुमारिकाओं को राजा की अध्यक्षता में नीलाम किया जाता था । प्रत्येक प्रान्त को निश्चित संख्या में सैनिक युद्ध के लिए देने पड़ते थे, जिनके साथ उनका शस्त्रवाहक भी होता था । युवती कुमारिकाओं के सम्बन्ध में नियम इस आधार पर था कि वे ही राज्य के लिए जनसंख्या की वृद्धि करती हैं ; अतः उनका मान असुर - दानव राष्ट्रों में सर्वोपरि होता था । प्रतिवर्ष वर्ष-नक्षत्र के दिन राज्य - भर की युवती कुमारिकाएं राजप्रासाद के प्रांगण में राजा के सान्निध्य में ऊंची बोली पर बेच दी जाती थीं । दानव और असुर राज्यों में एक और भी नियम था । वह यह कि कोई भी असुन्दर पुरुष राज - सेवा नहीं कर सकता था । पुरुष का मूल्य उसकी योग्यता नहीं, शरीर - गठन और रूप - सौंदर्य पर निर्भर था । जो पुरुष जितना रूपवान तथा गठीले शरीर का होता, उसे उतना ही ऊंचा पद मिलता था । इसलिए असुर -दानव- राष्ट्रों में शरीर - सौंदर्य का बड़ा ध्यान रखा जाता था । कुरूप और दुर्बल व्यक्ति तिरस्कार की दृष्टि से देखे जाते थे। वे चाहे जितने उच्चकुल में उत्पन्न हुए हों , उन्हें अपने परिवार में दास - कर्म करने पड़ते थे तथा निकृष्ट भोजन और वस्त्र मिलते थे। परन्तु कुमारिकाओं के संबंध में यह बात न थी । कुमारिकाएं प्रजनन की केन्द्र मानी जाती थीं । प्रजनन ही उन दिनों सबसे महत्त्वपूर्ण ज्ञान-विज्ञान था । इसी से जननेन्द्रियों की पूजा उन दिनों सर्वत्र असर - दानवकल में प्रचलित होती जाती थी । राजा चाहता था कि असुन्दर और विकलांग कुमारिकाएं भी स्वर्ण देकर सुन्दर पुरुषों को दी जाएं ,जिससे वे सुन्दर बच्चों को जन्म दे सकें । कुमारिकाओं की बिक्री के लिए एक विभाग था । उसमें पुरोहितों का प्राधान्य होता था । प्रहर दिन चढ़े कुमारिकाओं का विक्रय आरम्भ हुआ । दानवेन्द्र मय राजयाजकों तथा मन्त्रियों के साथ सुसज्जित हो स्वर्णपीठ पर आ बैठे । दानवेन्द्र के साथ अनेक भविष्यवादी ,दिव्य शक्तिधारी ,जादूगर तथा ज्योतिषी भी थे। वे सब लाल वस्त्रों पर स्वर्णाभरण पहने हुए थे। दानवेन्द्र के प्रिय पार्षद लाल पोशाक पर सोने की सांकल गले में पहने राजा की बाट में बद्धांजलि खड़े थे। दानवेन्द्र की चेटी भी मोरपंख और छत्र लिए दानवेन्द्र के पीछे खड़ी थी । रथदल, हयदल, गजदल और पैदल सेना पंक्तिबद्ध अपने - अपने यूथपतियों की अधीनता में सजी खड़ी थी । आरम्भ में मन्त्रोच्चार हुआ। देवता को बलि दी गई और अतिवृष्टि , अनावृष्टि , अवर्षण , तूफान और दुर्भिक्ष से राष्ट्र सुरक्षित रहे तथा दानवेन्द्र वर्ष भर सम्पन्न , संप्रहृष्ट रहें , इन सबके लिए होम - पूजन और पृथक्- पृथक् बलि दी गई । इसके बाद दानवेन्द्र की स्वर्ण- प्रतिमा का पूजन विविध उपचारों से हुआ । दानवेन्द्र की मूर्ति पर विविध प्रजाजनों ने अपनी श्रद्धानुसार बलि - भेंट दी । बहुतों ने स्वर्ण दिया , रक्त
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