50. आरोह तल्पम् परन्तु विप्रचित्त दानव की बेटी एकचक्र असुर पर मोहित थी । एकचक्र स्फूर्तिवान तस्कर असुर था । गहन वन के उस पार दुर्गम गिरिशृंग पर उसका दुर्गम दुर्ग था । दुर्ग जीर्ण और अति प्राचीन था । वहां अपने एक सहस्र तस्कर दानवों के साथ वह निर्द्वन्द्व रहता था । तस्कर - वृत्ति और आखेट उसका व्यसन था । उत्तम घोड़े और सुन्दरी कुमारिकाएं , जहां से जैसे हाथ लगे, उड़ा ले जाने का उसे शौक था । यह स्वयं एक दुर्दान्त धनुर्धर योद्धा और अश्वारोही था । वैसे ही उसके संगी- साथी भी थे। उस दुर्गम दुर्ग में उसने बहुत - से अमूल्य अश्व और तरुणी कुमारिकाएं एकत्र कर रखी थीं । वर्ष-नक्षत्र के दिन यह मायानगरी में मालिनी की डाक बोलने गया था । मालिनी से उसकी साठ- गांठ पहले से ही थी , परन्तु उसकी डाक बहुत ऊंची बोली गई। प्रथम रैक्व ऋषि ने ही बहत स्वर्ण दिया और जानति ने उसके लिए द्विगुण स्वर्ण का ढेर लगा दिया । इससे एकचक्र निरुपाय हो गया । इतना स्वर्ण उसके पास न था । वह हाथ मलता रह गया और जानश्रुति मालिनी को अपने गधों के रथ पर बैठाकर ले गया । जानश्रुति बड़ा सम्पन्न दैत्य था । उसका महल, सेना, सैनिक - सुरक्षा सभी कुछ था । उसके अवरोध से मालिनी को उड़ा ले जाना एकचक्र के लिए संभव न था । जानश्रुति का डाक स्वीकार करने को छोड़ मालिनी के लिए दूसरा उपाय न था । इन्कारी का कोई कारण वह बता नहीं सकती थी । दुराग्रह करने पर उसका कौमार्य लांछित होता था । मर्यादा भंग होती थी । अतः उसने प्रचलित रिवाज के अनुसार उस समय हंसकर जानश्रुति के हाथ बिकना स्वीकार कर लिया । एकचक्र तावपेच खाकर रह गया , फिर भी उसने मालिनी की आशा नहीं छोड़ी । वह उसकी ताक में रहा। मालिनी को यहां बहुत ऐश्वर्य प्राप्त हुआ, पर साहचर्य उसे नहीं मिला । असुर राजा जानश्रुति तरुण और सुन्दर था , पर साहसिक न था । मालिनी के मन में जो लौहपुरुष बसा था , उसका मन वहीं था । वह भी किसी तरह जानश्रुति के फंदे से छूटना चाह रही थी । इसी से वह रैक्व को दे दी जाए , इस प्रस्ताव को उसने जरा ननु -नच करके झट स्वीकार कर लिया । वह जानती थी की जानश्रुति के महल की अपेक्षा ऋषि के अवरोध से भाग जाने के उसे बहुत सुअवसर थे। यदि उसे रैक्व ने नीलाम में खरीद लिया होता , तो उसका उनके यहां से भागना एक कानूनी अपराध होता , परन्तु अब वह भाग सकती थी । रैक्व ने ‘ आरोह तल्पम् का समारोह किया । यह समारोह असुरों में सुहागरात जैसा होता था । फूलों की शय्या रची गई। ऋषि का शयन - मन्दिर धूप - सुवास - चर्चित किया गया । इष्टजनों को सोमपान कराया गया । देव -पितृजनों को बलि दी गई । ऋषि के अवरोध में बहुत स्त्रियां थीं । वे मालिनी को स्नान - मज्जन से , वस्त्रालंकार से सज्जित - सम्पन्न करके , बूढ़े , कामुक, धनी और लम्पट उस ऋषि के शयनागार में ले गईं। ऋषि ने कहा - “ आरोह
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