देहयष्टि है। " “ वाह, ऐसी नवकुमुस - कोमलांगी, सुन्दरी , सुषमावती बालाओं में मेरी बहुत रुचि है । ऐसी बहुत कोमलांगियां मैंने देश - देश से हरण करके एकत्र की हैं । यहां ऐसी सुन्दरियां बहुत हैं । आइए , अवरोध में चलकर देखिए, आपकी दासी यहां है भी ! " तब वह विकट दस्यु बूढ़े ऋषि को भलीभांति खिझाने के लिए अवरोध में ले गया , वहां सैकड़ों विलासवती सुन्दरियां विविध क्रीड़ाओं में मग्न थीं । वहां रूप की हाट लगी थी । रूप के उस खेत को देखकर ऋषिवर भाव- मुग्ध ठगे- से रह गए। इसी समय उनकी दृष्टि मालिनी पर पड़ी , जो एक लता - मण्डप में पुष्पगुम्फित झूले पर आनन्द से झूल रही थी । ऋषि ने उंगली उठाकर कहा - “ वह रही, वह है ! ” ___ एकचक्र ने हंसकर लापरवाही से कहा - “ वाह , वह तो विप्रचित्त दानव की कन्या मालिनी है। " " हां - हां, वही है मेरी दासी, जिसे तू उड़ा लाया है। फेर दे मेरी दासी । " “किन्तु यह आपकी दासी कैसे हुई ? आपने तो इसे खरीदा नहीं। " " उस मन्दभाग्या ने मेरे हाथ बिकना अस्वीकार कर दिया था । " " तो फिर? " " उसे जानश्रुति ने द्विगुण स्वर्ण देकर खरीद लिया था , फिर मुझे बेच दिया । " " आपने स्वर्ण दिया था ? " "स्वर्ण नहीं रे, मैंने उस शूद्र को श्रेय और प्रेय का रहस्य बताया था । " " तो यह खरीदा कहां ? दान हुआ । " “ एक ही बात है; ला , लौटा दे मुझे। " " परन्तु वह तो मेरी प्रेयसी है। " “ अरे तेरे अवरोध में तो बहुत हैं , एक उसे मुझे लौटा दे। " “ ऐसी सुन्दर बालाओं में मेरी बहुत रुचि है, ऋषिवर! फिर वह तो मेरी प्रेयसी है। लौटा नहीं सकता। ” “ अरे , तू ऋषि का भाग हड़पना चाहता है। चल , मैं तुझे भी श्रेय और प्रेय का भेद बता सकता हूं। ला , लौटा दे मेरी दासी। " दस्यु ने हंसकर कहा - “ श्रेय और प्रेय का भेद मैं जानता हूं ऋषिवर ! पर आप पर मैं एक अनुग्रह कर सकता हूं । " वह क्या ? " “मेरा एक नियम है। मैं नित्य नई सुन्दरियां देश- देश से हरण करके लाता हूं । उनका यहां सब भांति मनोरंजन और सत्कार होता है । एक वर्ष मैं उन्हें अपने अवरोध में रखता हूं। एक वर्ष की अवधि में जो सुन्दरी गर्भवती हो गई , उसे तो सदा के लिए अपने पास रख लेता हूं और जो एक वर्ष में गर्भवती न हुई, उसे अपने सेवकों में बांट देता हूं। सो तुम अगले वर्ष आना । यदि तुम्हारी यह दासी तब तक गर्भवती न हुई, तो तुम्हें ही दे दूंगा । किसी दूसरे सेवक को नहीं दूंगा । " विवश, ऋषि निरुपाय घर लौट आए।
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