52. निकुम्भला - यज्ञागार त्रिकूट- उपत्यका में समुद्र-तीर से तनिक हटकर रमणीय निकुम्भला -उद्यान था । उद्यान में एक बड़ा सरोवर था । ताल , तमाल, हिन्ताल , मौलसिरी और चन्दन के वृक्ष थे। उद्यान अत्यन्त विस्तृत था । उसमें विविध लता - मण्डप , लता - गुल्म , वीथी और चौक थे। हरी घास के बड़े- बड़े चौगान थे। सघन छाया में नाना जलचर , नभचर , विहंग और जीव वहांविचरण करते थे। वहां का दृश्य बड़ा ही मनोरम था । सरोवर के तीर पर एक स्फटिक - वेदी पर मेघनाद कृष्ण मृगचर्म पहने , हाथों में कमण्डल लिए, सिर पर शिखा बढ़ाए, यज्ञसूत्र पहने , दीक्षित हो , मौनव्रत धारण किए बैठा था । पास ही दैत्य - याजक समासीन हो विधिपूर्वक उससे यज्ञ करा रहे थे। रावण को यह सब अच्छा न लगा । उसने कहा - “ पुत्र , यह तुम क्या कर रहे हो ? " परन्तु मेघनाद उसी प्रकार निश्चल बैठा रहा। इस पर रावण ने फिर प्रश्न किया - “ अरे मेघनाद, यह तू कैसा अनुष्ठान कर रहा है ? क्यों कर रहा है ? मुझे ठीक - ठीक बता। ” परन्तु मेघनाद फिर भी मौन- जड़ रहा । तब याज्ञिक ने कहा - “ हे रक्षेन्द्र , तुम्हारे पुत्र मेघनाद ने छः यज्ञ समाप्त कर लिए हैं । ” " कैसे छः यज्ञ ? " “ जैसे वेद- विहित हैं - अग्निष्टोम , अश्वमेध, बहुसुवर्णक, वैष्णव और राजसूय । ” “किन्तु इनमें तो देवों की पूजा होती है। क्या रावण के पुत्र को इन मूर्ख देवों की पूजा करना उचित है ? " । __ “रक्षेन्द्र अब तक की परम्परा तो यही रही है। " " रक्ष- कुल में यह परम्परा न चलेगी , रक्ष - कुल के इस आयुष्मान् को तो इन देवताओं को शत्रु की भांति युद्ध में जय करके उन्हें बन्दी बनाना होगा । “किन्तु रक्षेन्द्र, देवगण बन्दी कैसे होंगे ? " । " हमारे प्रबल पराक्रम से , मैंने अपनी रक्ष- संस्कृति में केवल एक ही देव को स्वीकार किया है। " " वह कौन है ? " “ महेश्वर, वृषभध्वज रुद्र, शंकर ! उठ पुत्र , इन हीन देवों का आश्रय त्याग! और जा , भूतपति रुद्र की अर्चना कर ! फिर उनके सान्निध्य से दुर्जय देवों को बन्दी बनाकर अपनी सेवा में रख ! " “ राक्षसेन्द्र के ऐसे वचन सुनकर मेघनाद हुंकृति कर, यज्ञासन छोड़ उठ खड़ा हुआ। यज्ञ - सूत्र उसने तोड़ दिया । शिखा काट फेंकी। यज्ञ - हवि पशुओं को खिला दी । फिर वह बद्धांजलि हो , पिता के चरणों में गिर गया । उसने रावण के चरणों में मस्तक टेककर कहा - “ हे तात , कौन हैं वे दुर्लभ महेश्वर रुद्र ? "
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