पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/१७६

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“ परन्तु वह वीर सुरुचिसम्पन्न है। सूर्पनखा उसे चाहती है, वह अभिजात दानव कुल का है, फिर उसकी आयु भी तो ऐसी ही है। " " हां , यौवन का प्रारम्भ प्रेम ही से होता है। प्रेमी समझते हैं, प्रेम ही जीवन का सार है, परन्तु रक्ष - महिदेव भी क्या यही समझते हैं ? " " कदापि नहीं । " “ मैं भी इसी से इस प्रेम -भावना को प्राथमिकता नहीं दे सकती । " " तो प्रिये, तुम क्या चाहती हो ? " “केवल यही कि राक्षेन्द्र इस विषय पर ध्यान दें । इस विषय को अल्पवयस्क तरुणों के ऊपर छोड़ देना खेदजनक हो सकता है । मेरा मन कहता है , हमें यह संबंध रोकना चाहिए । यह मुझे श्रेयस्कर नहीं दीख रहा है। असंभव नहीं , एक दिन योग्य पात्र हम उसके लिए पा जाएं । " “ परन्तु उसका प्रेम ? ” . “ बचपन का अज्ञान है । " " प्रेम और जीवन के तथ्य का उसे अनुभव होना चाहिए। इसके लिए एक युक्ति यह हो सकती है कि एक ऐसा प्रभावशाली व्यक्ति हमें ढूंढ़ना चाहिए , जिसके साथ , बिना ही विवाह किए, वह भाग जाए । प्रेम और जीवन का जब उसे अनुभव हो जाएगा, वह स्वयं अपना पति चुन सकने में समर्थ होगी । ऐसे किसी एक पुरुष पर दृष्टि करो प्रिये , मैं भी देखूगा । " _ “ इससे क्या लाभ होगा ? जब तक उसका मनोनीत पुरुष न होगा , वह उसके साथ भागेगी ही क्यों ? फिर , मैं तो किसी ऐसे पुरुष को जानती नहीं । " “विद्युज्जिह्व ही क्या बुरा है ? विवाह की बात छोड़ दी जाए। प्रेम ही को आगे चलने दो , उसे तुम ढील दे दो । वह तो आज ही विद्युज्जिह्व के साथ भाग जाएगी। " ____ “ यह रक्षेन्द्र अपनी ही बहन का परिहास कर रहे हैं ! ” “ नहीं प्रिये, तुम्हें इसी बात का तो भय है। तुम्हारी बात से तो मैंने यही समझा । देखो , सूर्पनखा मूर्ख नहीं है , सच्ची, भावुक और स्थिरमति लड़की है । मैं उसकी ओर से निश्चिन्त हूं। उसे तुम उसी के पसन्द के जीवन को चुनने दो । हम राक्षस स्त्रियों पर अपना अंकुश रखना नहीं चाहते । " । ___ “मैं भी चाहती हूं कि वह अपने जीवन को स्वयं चुने । पर वह भूल नहीं कर सकती, यह तुम नहीं कह सकते । वह दुनिया के संबंध में कितना जानती है? अपने ही संबंध में उसका ज्ञान सीमित है। उसके सारे ही आदर्श भावुकता पर आधारित हैं । वह समझती है कि वह सब कुछ जानती है, परन्तु उसका हृदय सो रहा है । वह जब जागेगा , तब तक तो सम्भवतः सब कुछ समाप्त हो जाएगा। वह बड़ी तुनकमिजाज लड़की है। ऐसी लड़कियां प्रेम के मामले में सदा धोखा खाती हैं । " “प्रिये, प्रेम के तत्त्व को मैं सम्भवतः तुमसे अधिक नहीं समझता । ” रावण ने हंसते हुए मन्दोदरी का आलिंगन किया और कहा - “ तुम जैसा ठीक समझो करो। पर यह न भूलो कि मैं अपनी सूर्पनखा को बहुत प्यार करता हूं और उसे सुखी देखना चाहता हूं। " और वह एक बार फिर मन्दोदरी का आलिंगन कर तेजी से चला गया ।