54. सूर्पनखा खुब घने काले बाल , चमकती हुई काली आंखें , एक निराला- सा व्यक्तित्व, गहन अहम्मन्यता से भरपूर। रानी के समान गरिमा , पिघलते हुए स्वर्ण- सा रंग , आदर्श सुन्दरी न होने पर भी भव्य आकर्षण से ओतप्रोत । आंखों में झांकती हुई स्थिर दृढ़ संकल्प - प्रतिमा , कटाक्ष में तैरती हुई तीखी प्रतिभा और उत्फुल्ल होठों में विलास करती हुई दुर्दम्य लालसा यह सूर्पनखा का व्यक्तित्व था । प्रतिक्रिया के लिए सदैव उद्यत और अपने ही पर निर्भर । लम्बी, तन्वंगी, सतर और अचंचल। उसका असली नाम था वज्रमणि , परन्तु नाखून उसके बड़े और चौड़े- सूर्प की भांति थे, इससे बचपन ही में विनोद और प्यार से भाई उसे चिढ़ाते हुए सूर्पनखा कहते थे और अब उसका यही नाम प्रसिद्ध था । इस नाम से वह बचपन में चिढ़ती थी , परन्तु अब नहीं। वह परन्तप रावण और दुर्धर्ष कुम्भकर्ण की अकेली बहन थी , प्यार और दुलार के वातावरण में पली हुई । प्रथम रक्षकुल , दूसरे राजकुल , तीसरे प्रतापी भाइयों की प्रिय इकलौती बहन , चौथे निराला अहं -स्वभाव, पांचवें स्वच्छन्द जीवन , सबने मिलकर उसे एक असाधारण कहना चाहिए, लोकोत्तर – बालिका बना दिया था । राक्षसेन्द्र रावण के सामने आकर उसने शालीनता से कहा- " जयतु देवः ! जयत्वार्य:! " " अये स्वसा! अपि कुशलं ते ? " " प्रीतास्मि । किम् रक्षेन्द्र ! " “ भद्रं ते पश्यामि भगिनि ! " " मेरे लिए रक्षेन्द्र का कुछ आदेश है ? " “ तेरे ही कल्याण के लिए। तूरक्षेन्द्र की प्राणाधिका इकलौती बहन है। " "कुछ विशेष बात है ? " " हां बहन, तुझसे महिषी मन्दोदरी ने कुछ कहा है ? " “ यही कि रक्षेन्द्र मुझे देखना चाहते हैं । ” " तो बैठ बहन , तुझसे मैं कुछ बात करूंगा। " " कैसी ? " " प्यार की ? " " कैसा प्यार ? “ जीवन से प्यार । " " वह क्या होता है ? " " क्या तु नहीं जानती ? " " कदाचित् । ”
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