पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/१८

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2. तू न प्रथम है, न अन्तिम उपत्यका का वह प्रान्त विजन और सघन था । वहां निर्मल जल का सरोवर था , सरोवर में शतदल कमल खिले थे। ताल - तमाल-हिन्ताल की सघन छाया में मध्याह्न की धूप छनकर - शीतल होकर सोना - सा बिखेर रही थी । मन्द पवन चल रहा था । सरोवर में चक्रवाक , सारस , हंस आदि नाना विहंग थे। तरुणी एक विशाल शाल्मली वृक्ष के नीचे सूखे पत्तों पर लेट गई। हंसते हुए उसने कहा - “ अब तू आखेट ला । " तरुण ने धनुष पर हाथ डाला । गर्दन ऊंची कर इधर - उधर देखा । वह लम्बे - लम्बे डग भरता हुआ वन में घुस गया । एक हरिण और कुछ पक्षी मारकर वह लौटा । तरुणी ने फुर्ती से अरणी घिसी - सूखे ईंधन में अग्न्याधान किया । तरुण ने आखेट के मांस - खण्ड किए। दोनों ने मांस भून - भूनकर खाना आरम्भ किया । तरुणी बहत भूखी थी , वह रुच -रुचकर मांस खाने लगी । कभी आधा मांस - खण्ड खाकर वह तरुण के मुंह में ठूस देती , कभी उसके हाथों से छीनकर स्वयं खा जाती । खा - पीकर तृप्त होकर वह तरुण की जांघ पर सिर रखकर लेट गई । दोनों भुजाएँ ऊंची करके उसने तरुण की कटि लपेट ली । वह बोली - " बड़ा हस्तलाघव है तुझमें । " “ मुझे प्रयास करना ही न पड़ा । आखेट सहज ही मिल गया । ” तरुण ने हंसकर कहा। " तू किस कुल का आर्य है ? " " वैश्रवण पौलस्त्य हूं। " “ तूने कहा था - तेरा मातृकुल दैत्यकुल है। " " हां । " “ कहां का ? " "लंका का । लंकापति सुमाली दैत्य का दौहित्र हूं। " " अरे वाह प्रिय ! " तरुणी हर्षोल्लास से चीख उठी । आनन्दातिरेक से उसने धक्का देकर तरुण को भूमि पर गिरा दिया । फिर उसके वज्र -वक्ष पर अपने अनावृत उन्मुख यौवन युगल ढालकर तरुण के अधर चूमकर बोली - “ सुपूजित है तू। ” उसे अपने में प्रविष्ट - सा करता हुआ युवक बोला - “ तू क्या लंकाधिपति सुमाली को जानती है ? ” । “ सुपूजित है लंकाधिपति दैत्येन्द्र सुमाली का कुल । मेरा पिता दैत्येन्द्र का सेनापति था । हिरण्यपुर के देवासुर - संग्राम में उसने विष्णु से युद्ध किया था । " ___ तरुण ने दोनों भुजाओं में उसे लपेट वक्ष में दबोच लिया और उसके सघन जघन को अपनी सुपुष्ट जंघाओं में आवेष्टित करते हुए बोला - " तब तो तू मेरी ही है। " उसने अपना शिथिल गात्र जैसे तरुण को अर्पण करते हुए सुरा - सुरभित आवेशित गर्म श्वास लेते हुए कहा - “ आज मैं तेरी हूं। तू स्वच्छन्द रमण कर। "