पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/१९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

" और आज के बाद ? " तरुण ने अपने दांत तरुणी के दांतों पर रगड़ते हए कहा । " जैसा मेरा मन होगा । जैसा मुझे रुचेगा । ” उसने नेत्र निमीलित कर लिए। तमाल की सघन छाया में से छनकर अपराह्र की सुनहरी धूप उनके अनावृत , विवसन सम्पुटित अंगों पर पड़ रही थी । सरोवर में पक्षी कलरव कर रहे थे। दोनों निश्चल , निस्पन्द उस विजन वन में पर्णशय्या पर एक - दूसरे में समाए हुए से , आनन्दातिरेक से तृप्त सुप्त -विस्मृत पड़े थे। तरुणी ने तरुण के कान में अधर लगाकर कहा - “ अब उठ । ” । तरुण ने तरुणी के होंठों पर होंठ रखकर वक्ष पर भार डालते हुए होंठों ही में कहा- “ ठहर तनिक । ” ___ “ अब नहीं । देखता नहीं, सूर्य की किरणें तिरछी हो चलीं। " उसने धकेलकर तरुण को अपने से पृथक् किया और हंसती हुई उसे खींचकर जल में धंस गई। दोनों विवसन विजन वन के अगम जल में क्रीड़ा करने लगे । अमल नील जल आन्दोलित हो उठा । दोनों एक - दूसरे के पूरक – एक - दूसरे के एकान्त साक्षी थे। दोनों के मुक्त यौवन कभी जल - तल पर और कभी जल -गर्भ में मिथुन मीन - से विचरने लगे । कभी तरुणी जल में डुबकी लगाती - तरुण उसे ढूंढ़ लाता । कभी दोनों तैरने चले जाते दूर तक । कभी दोनों संश्लिष्ट हो तैरते । कभी उनके वक्ष परस्पर टकराते, कभी अधरोष्ठ । कभी तरुणी जल की बौछार तरुण पर मारती । कभी तरुण उसके विवसन - अनावृत गात्र को दोनों बलिष्ठ भुजाओं में सिर से ऊंचा उठाकर ज़ोर से किलकारी मारता । सूर्य क्षितिज पर झुक चला। श्रान्त - क्लान्त तरुणी तरुण का हाथ थाम जल से निकली। जल-बिन्दु दोनों के अंगों पर ढर- ढरकर मोती की भांति इधर - उधर भूमि पर बिखरने लगे। वह एक शिलाखण्ड पर अलस भाव से उत्तान लेट गई । अपराह्न की पीली धप उसके सम्पूर्ण विवस्त्र गात्र पर फैल गई । तरुण भी वहीं आ खड़ा हुआ । जल उसके लौहगात से टपक रहा था । उसके बाहुपाश में बहुत - से शतदल कमल पुष्प थे। उन्हें उसने तरुणी पर बिखेर दिया । तरुणी ने उसके गात को भरपूर दृष्टि से पीते हुए कहा - “ कमनीय है तू रमण , प्रिय है, प्रियतम है । आ , शृंगार दे मुझे। कपोलों पर लोध्र -रेणु मल दे, कुचों को शैलेय से चित्रित कर , सघन जघन को अरविन्द-मकरन्द से सुरभित कर, चरणतल को लाक्षारंजित कर , कुन्तल वृत्त में ये शतदल कमल गूंथ , पिंडलियों में मृणाल मसल । आ , मेरे निकट आ , परिरम्भण दे मुझे, विश्रान्त कर, ओ प्रिय -प्रियतम ! ” । तरुण ने विधिवत् रमणीय रमणी को शृंगारित किया । कुचों को शैलेय से चित्रित किया । कपोलों से लोघ्र -रेणु मला , अधरों पर लाक्षारस दे केशों में कमल गूंथे। जघन को मकरन्द से सुरभित किया । भुजाओं में मृणाल - वलय लपेट दिए। वह रमणीय रमणी शृंगारित हो , मूर्तिमती सान्ध्य -वनश्री - सी दिप उठी । तरुणी का शृंगार सम्पन्न करके तरुण ने हंसते -हंसते पूछा - “ अब और तेरा क्या प्रिय करूं ? " तरुणी ने अपनी भारी- भारी पलकों में बंकिम कटाक्ष भरकर , तरुण को आपाद विवसन देख , दांतों में लाल - लाल जीभ को दबाकर सीत्कार - सा करते हुए मन्द स्वर में कहा - “ अब परिरम्भण दे, आप्यायित कर , चुम्बन कर , सर्वांग चुम्बन कर। " उसने दोनों भुज -मृणाल ऊंचे फैला दिए। तरुण ने आह्लाद- अतिरेक से