55. विद्युजिह्न राक्षसपुरी लंका अपने ढंग की बिल्कुल निराली नगरी थी । उसमें कितनी सुषमा थी और कितनी कुत्सा - यह कहना कठिन था । वहां के वन - उपवन बड़े विशाल और रमणीय थे। वे वन - उपवन चम्पा , चमेली, अशोक, मौलसिरी , साखू, ताल , तमाल , हिन्ताल , कटहल , नागकेशर , अर्जुन , कदम्ब , तिलक, कर्णिकार आदि पुष्पित वृक्ष - लताओं से आच्छादित थे । कुबेर का चैत्ररथ नामक विहार - वन ऐसा मनोहारी और अनुपम था , जिसका वर्णन हो ही नहीं सकता। उसमें सभी ऋतुओं के पुष्प पुष्पित थे। पपीहा , कोकिल और नाचते हुए मोर अपने मधुर रवों से उस उद्यान को गुंजायमान कर रहे थे । भांति - भांति के विहंगों के कलरव और भ्रमरावली से गुजायमान उस उपवन का पुष्पवासित शीतल , मन्द सुगन्ध समीर प्राणों में आनन्द का संचार करता था । लंका के त्रिकूट शिखर का विस्तार सौ योजन था । उसी के एक शिखर पर स्वर्णलंका बसी थी , जिसकी लम्बाई बीस योजन और चौड़ाई दस योजन थी । इस नगर के प्राचीर के गगनस्पर्शी चार द्वार श्वेतवर्ण मेघों के समान प्रतीत होते थे। जैसे वर्षा ऋतु के सघन घन विविध आकृति के होते हैं , वैसे ही लंका के भवन , प्रासाद और मन्दिर थे । कुबेर का राजप्रासाद एक सहस्र खम्भों पर आधारित था , जिसकी धवल सुषमा कैलास के समान थी । इसी को रावण ने अपनी रुचि और विलास -भावना से , मणि -मुक्ता से सुसज्जित किया था । दस सहस्र धनुर्धर राक्षस दिन - रात उसकी रखवाली करते थे। धन, धान्य , रत्न , मणि , स्वर्ण और योद्धाओं से भरपूर , यन्त्रयुक्त कपाटों से सुरक्षित वह लंकापुरी सब पुरियों से विचित्र और शोभासम्पन्न थी । पाठकों को स्मरण होगा कि यह लंका दैत्यों की थी । यहां हम संक्षेप में फिर उस इतिहास को दोहराते हैं । जिस समय का उपाख्यान इस उपन्यास में वर्णित है, उसके कोई डेढ़ सौ वर्ष पहले दैत्यों का साम्राज्य पृथ्वी में सर्वोपरि था । इस साम्राज्य के प्रतिष्ठाता हिरण्यकशिपु, हिरण्याक्ष, वज्रांग , अन्धक और वज्रनाभि आदि थे। इनमें हिरण्यकशिप और हिरण्याक्ष का प्रताप सर्वोपरि था । हिरण्याक्ष की सहायता से हिरण्यकशिपु ने अपना राज्य बहुत बढ़ा लिया था , जिसका बड़ा आतंक पृथ्वी - भर के राज्यों पर था । हिरण्याक्ष ने जो अपना दूसरा साम्राज्य स्थापित किया था , वही आगे चलकर विश्रुत बेबीलोन साम्राज्य के रूप में विकसित हुआ था । इन दोनों भाइयों ने अनेक देवराजों को पदच्युत कर दिया था तथा वे त्रिलोकपति विख्यात थे। इन दोनों भाइयों का साम्राज्य वर्तमान एशियाई रूस , सफेद कोह , काकेशिया , पामीर से तुर्किस्तान और अफगानिस्तान तक फैला हुआ था । उन दिनों देवगण , जो आदित्य भी कहाते थे, सुमेरु – पामीर तक ही सीमित थे। उनका वहां एक छोटा - सा गणतन्त्र था । पीछे गन्धर्व अप्सराओं की एक नई मिश्रित जाति हेमकूट कराकुरम पर और नागों की निस्सा पहाड़ पर आ बसी थी । ऋषि नीलाचल में और पितृ शृंगवान्
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