पर्वत के आंचल में रहते थे, जो सुमेरु से पश्चिम काश्यप सागर के तट पर था । वाराहों का एक छोटा - सा राज्य केतुमाल द्वीप में था , जो देवों के मित्र थे। वरुण ने प्रलय के बाद उनसे पृथ्वी के संस्कार - उद्धार में भारी मदद ली थी । तब से वाराहपति भी देवों की पंक्ति में गिने जाने लगे थे। वाराहों ने घात लगाकर एक दिन वन में मृगया को गए हुए हिरण्याक्ष को मार डाला । तब से हिरण्यकशिपु का राज्य डगमगा गया । फिर भी किसी प्रतापी देव ने उस पर चढ़ाई करने का साहस नहीं किया । अन्त में विष्णु के प्रयास से उनके भाई नृसिंह ने , जो हिरण्याक्ष के मरने पर बेबीलोनिया साम्राज्य के स्वामी बन गए थे , हिरण्यकशिपु को भी मल्लयुद्ध में मार डाला । लाचार हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रह्लाद को विष्णु से सन्धि करनी पड़ी । देवों की ओर से विष्णु ने वचन दिया कि अब दैत्यों का रक्त पृथ्वी पर नहीं गिरेगा । इसके बाद प्रह्लाद और उसके पुत्र विरोचन ने कोई राजनीतिक महत्ता नहीं प्राप्त की । आदित्यों से इनके युद्ध हुए अवश्य और उनके दबाव से दैत्यों ने पूर्व की ओर अपना प्रसार प्रारम्भ किया। उत्तर- पश्चिम के राज्य - समूह उनसे छिन गए और वहां देवों तथा आदित्यों के अनेक खण्ड - राज्य स्थापित हो गए। इसके बाद विरोचन -पुत्र बलि बड़ा प्रतापी हुआ । उसने अपने पिता विरोचन और पितामह प्रह्लाद के जीवन - काल में ही अपनी राजनीतिक महत्ता बढ़ा ली थी और अपना नया साम्राज्य संगठित कर लिया था । उसने दैत्यों और दानवों को सन्धि द्वारा एक सूत्र में बांधा। उसने राजनीतिक ही नहीं , सांस्कृतिक संबंध भी स्थापित कर लिए। धीरे - धीरे उसके शौर्य , राजनीतिज्ञता, पुरुषार्थ, न्यायपटुता , धर्म , दान आदि गुणों के कारण उसका यश दूर दूर तक फैल गया । एक बार दैत्यों का फिर बोलबाला हो गया । परन्तु देवों को यह कैसे सहन हो सकता था ? उन्होंने नागों से मित्रता के सम्बन्ध स्थापित किए और अंततः बलि से उनका विकट समर हुआ । इस महत्संग्राम में बलि का दोष न था । उसने अपने पितामह के निधन का वैर छोड़कर देवों से सन्धि की , उनके साथ मिलकर समुद्र -मंथन किया और पूरा परिश्रम करने पर भी दैत्य खाली हाथ रह गए । सो देवों की धींगाधींगी और अपमान से खीझकर बलि ने युद्ध- दान दिया , जिसमें प्रह्लाद तक ने वृद्धावस्था में योग दिया । इस युद्ध में दैत्यों की कटक में महापद्मिनी, पद्म , कुम्भ , कुम्भकर्ण, कांचनाक्ष, कपिकन्ध , क्षिति , कम्पन , मैनाक , ऊर्ध्ववक्त्र , शितकेश, विकच, सुबाहु , सहस्रबाहु, व्याघ्राक्ष, वज्रनाभि , एकाक्ष , गजस्कन्ध , गजशीर्ष, कालजिह्व, कपि , हयग्रीव , प्रह्लाद, शम्बर , अनुह्लाद , नमुचि, यम , पुलोमा , विरोचन , धेनुक , युवराज बाण , अनायुषा - पुत्र बलि , वृषपर्वा, वृत्र , कनकबिंदु , कुजंभ , एकचक्र , राहु , विप्रचित्ति , केशी , हेममाली, मय आदि अनेक दैत्य -दानव छत्रपति और माण्डलिक सरदार लड़े । देवों की ओर विद्याधर, गन्धर्व, नाग , यक्ष, डम्बर , तुम्बर, किन्नर आदि थे। युद्ध में पहले देवों को पराजित होकर अफगानिस्तान की ओर भागना पड़ा । उन्हें अपना देव - लोक भी खो देना पड़ा । बाद में उन्होंने बृहस्पति और वामन द्वारा सन्धि कर तथा बलि को यज्ञ में फंसाकर , उसका बल हरण कर अन्त में बलि को पराजित किया । इस युद्ध में दैत्य - दानवों का बल भंग हो गया और उनका साम्राज्य भी छिन्न - भिन्न हो गया । लंकाधिपति दैत्य - बन्धु माली, सुमाली और माल्यवान् के इस युद्ध में सब परिजन खेत रहे। परन्तु बलि - पुत्र बाण ने फिर उत्कर्ष दिखाया । उसने रुद्र से मित्रता की , जिससे
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