पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/१९०

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घर जाकर उसने देखा कि मुर का मुण्ड कटा पड़ा है और विकटोदरी उसका वक्ष चीरकर उसका हृदय निकाल रही है । हाथ में रक्तसना खड्ग लेकर व्याघ्राक्ष मुर की स्त्री और बालक को वध- यूप से बांध रहा है, दोनों चीख-चिल्ला रहे हैं । ” विद्युज्जिब ने ललकारकर कहा " यह क्या किया रे, व्याघ्राक्ष? " " तो मैं अपना ऋण छोड़ दूं? " “ छोड़ उन्हें ! अभी बन्धनमुक्त कर ! " " तो ला तीन स्वर्ण मुद्राएं तू ही दे दे। " “ पर तूने मुर को मार ही डाला। " " उस सूखे बूढ़े में मांस ही कितना है, एक स्वर्ण भी तो नहीं उठेगा उसका । आज युद्ध में उस द्वीप के बहुत तरुणों का वध हुआ है । वे सब बिकने हाट में आए हैं । आज नर मांस का भाव बहुत सस्ता हो गया है। फिर यह बूढ़ा , वह बालक। ऊहुंक्– मैं बहुत घाटे में रहूंगा । सोच भला तीन स्वर्ण और ब्याज! ”

  • “ यह ले तीन स्वर्ण मुद्राएं, खोल उनका बन्धन। ” उसने स्वर्ण मुद्राएं उसकी ओर

फेंक दीं । व्याघ्राक्ष ने हंसकर स्वर्ण उठा लिया । फिर कहा - “ तनिक पहले आता तो यह बूढ़ा भी तेरे काम आता । " वह बालक और स्त्री को बन्धनमुक्त करने लगा । परन्तु विकटोदरी ने क्रुद्ध मुद्रा से कहा - “ यह हृदय - खण्ड और इसका मांस मैं नहीं दूंगी, कहे देती हूं - सूद कितना हुआ , यह क्यों नहीं कहते ? ” उसने रोषभरी आंखों से पति की ओर देखा । __ परन्तु विद्युज्जिह्व उससे विवाद करने को वहां रुका नहीं । सिसकते और बदहवास स्त्री और बालक को लिए, हाथ का शूल हवा में हिलाता हुआ , तेजी से वहां से चल दिया उसके पीछे खुशी से ताली बजाती वह राक्षस - बालिका भी ।