पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/१८९

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“ ऊहुंक्, मैं सर्प नहीं खाती। " “ खा ले कृत्या, नेत्र -दोष दूर हो जाएगा । यह नेत्र की अच्छी ओषधि है। " " मेरे नेत्रों में दोष नहीं है । " " तो यह ले। ” उसने एक समूचा भूना हुआ तीतर उसे दे दिया । पक्षी को लेकर भी वह खड़ी ही रही । विद्युज्जिह्व ने कहा _ “ जा भाग , अब क्यों खड़ी है ? " “ मुझे कुछ कहना है । ” उसके नेत्रों में भय और वाणी में करुणा थी । " कह । " " वे मुर , उसकी स्त्री और बालक पुत्र को पकड़ लाए हैं । " “ कौन ? " "व्याघ्राक्ष और विकटोदरी । " " क्यों ? " " ऋण के लिए। ” "फिर? " " मुर ऋण नहीं चुका सका, अब ये उसे सपरिवार मारकर खा जाना चाहते हैं । " “ किन्तु मुर तो हमारा मित्र है । उसका बालक मुझे बहुत प्रिय है । उसकी स्त्री भी मृदुभाषिणी है । " “ उसकी मुझ पर भी मातृदृष्टि है। कृपा कर उसे बचा लें । " "ऋण कितना है? " " केवल तीन स्वर्ण। ” " इतना तो मैं अभी दे सकता हूं। " " तब तो वे तीनों तेरे दास बन जाएंगे। " " तो जाकर देख , वहां क्या हो रहा है और मेरे आने तक उन्हें ठहरने को कह । " “ बालिका की उम्र तेरह- चौदह साल की थी । उसके अंग पर केवल अधो - वस्त्र था । वह सूअर के दांतों का कण्ठ - भूषण पहने थी जो स्वर्ण में मढ़ा था । कछुए की खोपड़ी के चूड़ उसकी भुजाओं में भरे थे। मनष्यों के दांतों की एक स्वर्ण- सूत्र ग्रथित करधनी वह कटि में पहने थी । वह बड़ी चपल और तीव्रबुद्धि लड़की थी । गत वर्ष उसे किसी क्षुद्र द्वीप में बांधकर बलि के लिए ले जाया जा रहा था । विद्युजिह्व उधर आखेट को गया था । उसका आर्तनाद सुन उसने उसे पांच स्वर्ण में खरीद लिया । अब वह उसकी सेवा बड़ी लगन से कर रही थी । विद्यज्जिह्व उस पर बहत सदय था । बालिका विद्यज्जिब का आदेश पा भाग गई । विद्युज्जिब जल्दी- जल्दी उस शूकर और पक्षियों को तथा उस मद्यभाण्ड को उदरस्थ करने लगा , परन्तु बालिका तुरन्त ही बदहवास - सी दौड़ी आई। उसने विद्युजिह्व के कन्धे झकझोरकर कहा - “ चल - चल, जल्द ! " “ क्या हुआ ? अभी मेरा भोजन पूरा कहां हुआ ? " “ पर उन्होंने मुर को मार डाला । वे उसे खा रहे हैं । वे उसकी स्त्री और पुत्र को भी मार डालेंगे। " ___ “ अरे , ” कहकर विद्युज्जिह्व उठा । अपना भारी शूल उसने हाथ में ले लिया । बालिका उसे एक प्रकार से घसीटती हुई - सी अंधेरी और तंग वीथी में ले चली। व्याघ्राक्ष के