पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/१९८

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66 इस मनोव्यथा के कष्ट को अकेला ही भोगने देने को मैं उसे अकेला नहीं छोड़ सकती। यदि मैं ऐसा करूं तो मैं अपनी दृष्टि में छोटी हो जाऊं।" “उस आदमी के प्रेम के लिए तू यह दुस्साहस कर रही है!" "भाई, तू रक्षेन्द्र है, साहसिक योद्धा और मैं तेरी बहन हूं, साहसिक प्रेमिका।" “साहसिक प्रेमिका?” मन्दोदरी ने त्योरियों में बल डालकर कहा। “महिषी, गुस्सा करने से क्या होगा? कुछ लोग साहसिक कर्तव्यनिष्ठ होते हैं। वे परिणाम की चिन्ता नहीं करते, न वे लाभ-हानि का विचार करते हैं। वे केवल वही करते हैं, जो ठीक है।" "तो तू क्या समझती है, यह मातृवध ठीक है?" “सम्भव है। परन्तु मैं तो विद्युज्जिह्व के प्रति अपने कर्तव्य ही की बात सोचती मन्दोदरी ने कहा-"तो उसे बुलाकर कारण पूछ।” “वह नहीं आएगा।" "मेरी आज्ञा से भी नहीं?" " रावण ने क्रोध से कहा। “और मैं भी तेरी आज्ञा से यहां रुकुंगी नहीं। उसके पास जाऊंगी।” सूर्पनखा ने शान्त मुद्रा से कहा। "तुझे प्रजंघ से ब्याह करना होगा।" “कदापि नहीं, मुझे दुःख है, मेरे कारण रक्षेन्द्र को दुःख हुआ-महिषी को भी अब चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं है, अब मैं चली।" “कहां?" 'अपने प्रियतम के पास।" "तो मुझे उससे युद्ध करना होगा।" "रक्षेन्द्र, उसके पास भी शस्त्र है।" "तो तू रक्षेन्द्र को चुनौती देती है?" “चुनौती रक्षेन्द्र अपनी बहन को देता है, जो उसका व्यापार नहीं है।" “किन्तु!” मन्दोदरी ने कहा-“मैं एक बार विद्युज्जिह्व से बात करूंगी।" “मैं उसे मणिमहालय की ड्योढ़ी न लांघने दूंगा।" “जब तक रक्षेन्द्र को आपत्ति है, मैं भी उसका यहां आना ठीक नहीं समझती।" "हम यह कैसे कहें कि वह प्रकृत मातृहन्ता है या कि कर्तव्यनिष्ठ पुत्र?" “वह कर्तव्यनिष्ठ पुत्र है।" "क्या माता का?" “नहीं, पिता का।” “परन्तु हम राक्षसों में, दैत्यों में और दानवों में मातृसत्ता ही वरिष्ठ है, पितृसत्ता नहीं।" "तो इसी से एक पत्नी अपने पति का वध कर सकती है? उसकी सब सम्पत्ति को उसके जीते-जी लेकर दूसरे पुरुष के साथ रह सकती है?" “यह दोषपूर्ण है।" 66